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से राष्ट्र के करोड़ों-करोड़ों विद्यार्थियों से कहना चाहता हूं कि वे गंभीरतापूर्वक आत्मालोचन करें। इससे सारी स्थिति उनके सामने बिलकुल स्पष्ट हो जाएगी और यह स्पष्टता उन्हें आत्मानुशासन की ओर अभिमुख करेगी, आत्माभ्युदय की दिशा में आगे बढ़ने के लिए प्रेरित करेगी। अणुव्रत आंदोलन का राजपथ उनके सामने है। वे इस राजपथ पर आएं। इससे आत्मानुशासन और आत्माभ्युदय की दिशा में गति सहज हो जाएगी।
अध्यापकों की जीवन- दिशा
अध्यापक भी मेरे सामने बड़ी संख्या में उपस्थित हैं। इस अवसर पर उनसे भी एक-दो बातें कहना चाहता हूं। भारतीय लोक-जीवन की ऐसी मान्यता रही है कि सज्जनपुरुषों का अल्पकालिक समागम भी करोड़ों अपराध नष्ट करनेवाला होता है। इस परिप्रेक्ष्य में वे अपने जीवन का गहराई से निरीक्षण करें। वे विद्यार्थियों के जीवन-निर्माता कहलाते हैं। क्या उनका जीवन इस दृष्टि से सही ढांचे में ढला हुआ है ? क्या वह विद्यार्थियों को चरित्रनिष्ठ बनने की प्रेरणा देनेवाला है? कहीं वह बुराइयों / दुर्व्यसनों से ग्रस्त तो नहीं है ? स्वयं बुराइयों से ग्रस्त होकर वे विद्यार्थियों को सुसंस्कारी कैसे बना सकेंगे ? उनके जीवन का सही निर्माण कैसे कर सकेंगे ? उन्हें ध्यान होना चाहिए कि विद्यार्थियों पर उनके कथन का उतना असर नहीं होता, जितना उनके आचरण और व्यवहार का होता है। यदि उनका आचरण और व्यवहार विद्यार्थियों के लिए सदाचार, संयम और सात्त्विकता की प्रेरणा नही बनता है, तो उनकी मौखिक हित- शिक्षा का उन पर कोई विशेष असर पड़नेवाला नहीं है। अध्यापन क्यों
दूसरी बात अध्यापन के बारे में उनकी दृष्टि सम्यक होनी चाहिए । दृष्टि सम्यक होने से मेरा तात्पर्य यह है कि वे अध्यापन को अपना पुण्य कर्तव्य समझें, अर्थार्जन का साधन नहीं । आज ऐसे अध्यापक बहुत ही कम देखने को मिलते हैं, जो अर्थार्जन की बात गौण कर कर्तव्यबुद्धि से अध्यापन कार्य करते हों। यदि सचमुच ही उनकी कर्तव्यबुद्धि जाग्रत होती तो वे विद्यार्थियों के लिए एक खुली पुस्तक होते । वे उनके लिए आदर्श होते। उनके हर आचरण और व्यवहार की विद्यार्थियों के जीवन पर छाप पड़ती।
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ज्योति जले : मुक्ति मिले
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