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९६ : मानव अपनी पहचान करे
दीपक तले अंधेरा !
आज मानव विज्ञान के युग में जी रहा है। ऐसा माना जा रहा है कि आज मानव ने बहुत प्रगति की है। उस प्रगति के बल पर वह आकाश को मापने का प्रयत्न कर रहा है, पाताल के रहस्य जानने की चेष्टा कर रहा है, लेकिन कैसी बात है कि इतना होते हुए भी वह दीपक तले अंधेरा वाली कहावत चरितार्थ कर रहा है! जिस मानव ने अपने उर्वर मस्तिष्क की खोजों के बल पर संसार में चारों ओर प्रकाश-किरणें फैलाईं, वह स्वयं अंधेरे में रहा! जिसने विश्व-व्यवस्था के गूढ़-से-गूढ़ तत्त्व जाने-पहचाने, वह स्वयं से सर्वथा अनजान और अपरिचित रह गया! क्या यह उसके लिए हास्यास्पद बात नहीं है? मेरा ऐसा मानना है कि यही वह मूलभूत कारण है, जिसने मानव की चरम प्रगति को दुर्गति की दिशा प्रदान की है। यह बात सुनने में कर्णप्रिय नहीं भी हो सकती, पर यथार्थ से किंचित भी परे नहीं है। इसलिए यह सर्वाधिक जरूरी है कि मानव सबसे पहले अपनी पहचान करे। आप निश्चित माने, जब तक मानव स्वयं की पहचान/परख के प्रति गंभीर नहीं बनेगा, उसकी कोई भी प्रगति पूर्ण और स्थायी नहीं हो सकती। धन साधन है, साध्य नहीं
_ आज के मानव को जब मैं देखता हूं तो मुझे बहुत स्पष्ट अनुभव होता है कि वह अशांत है, बहुत अशांत है। इसका कारण ? कारण बहुत स्पष्ट है। वह गलत रास्ते जा रहा है। उसने अर्थ को जीवन का साध्य मान लिया है, जबकि वह मात्र साधन है। अर्थ को उसके द्वारा यह अनपेक्षित अतिरिक्त महत्त्व दिया जाना ही उसकी अशांति का मूलभूत कारण है। अर्थवाद के चंगुल में फंसकर उसका चिंतन विकृत हो चला है। और इस विकृत चिंतन के फलस्वरूप आज वह अपनी मानवता से
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ज्योति जले : मुक्ति मिले
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