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अधिकार के अपहरण, राज्यसीमा-विस्तार, विध्वंसक शस्त्रास्त्रों के निर्माण आदि की शिक्षा एवं प्रेरणा नहीं दी जाती, बल्कि हेय-त्याग की बलवती शिक्षा दी जाती है। प्रासंगिक रूप से बता दूं कि उसमें आश्रव एवं आसक्ति को हेय माना गया है। संवर एवं अनासक्ति को उपादेय बताया गया है।
भारतीय संस्कृति का मूलाधार समन्वय है। वैदिक, जैन, बौद्ध एवं अन्य भारतीय धर्मों की यह विशेषता रही है कि उनमें अन्य धर्मों के प्रति सहिष्णुता रखने की बात पर विशेष बल दिया गया है, पर दुर्भाग्य से आज इस सहिष्णुता की बहुत कमी आ गई है। यदि इसकी कमी नहीं आती तो परस्पर आदान-प्रदान से संबंधों की निकटता बनी रहती। इसके अभाव में अनेक बहुमूल्य साहित्यिक कृतियां आज समाप्त हो गई हैं। अपेक्षा है, सभी बिंदुओं पर गंभीरता से चिंतन कर एक नया मोड़ लिया जाए, ताकि यह छीजत भविष्य में रोकी जा सके। आशा करता हूं, सभी धर्मों के अधिकारी लोग इस दिशा में विधेयात्मक चिंतन करेंगे।
बंगीय संस्कृत साहित्य परिषद, कलकत्ता १९ जुलाई १९५९
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-- ज्योति जले : मुक्ति मिले
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