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९६ : शांति का मार्ग
धर्म के प्रति अनास्था क्यों
आज भौतिक विज्ञान की प्रगति एवं विकास अपने उत्कर्ष पर है। इस कारण लोगों को सुख-सुविधाओं के विभिन्न साधन उपलब्ध हैं, परंतु धर्म और अध्यात्म के अभाव में यह भौतिक विकास मानव के लिए भय और त्रास का कारण सिद्ध हो रहा है। इस एकांगी प्रगति और विकास के कारण मनुष्य की मनुष्यता कुंठित हो गई है। परिणामतः वह धर्म के प्रति अनास्थाशील बन रहा है।
धर्म के प्रति मानव के अनास्थाशील बनने का एक अन्य कारण यह भी है कि वह अपने शुद्ध स्वरूप में नहीं है। उसके साथ बहुतसे विजातीय तत्त्व मिल गए हैं। इसके परिणामस्वरूप आम आदमी के दिमाग में धर्म के प्रति अनेक प्रकार की भ्रांतियां पैदा हो गई हैं। वह उसे जीवन के लिए अनावश्यक और अनुपयोगी तक मानने लगा है, पर यह एक यथार्थ है कि वास्तविक शांति की प्राप्ति उसकी शरण में ही प्राप्त हो सकती है। इसके सिवाय वह कहीं भी उपलब्ध नहीं है। धर्म का आवास कहां है
पर मैं जिस धर्म की चर्चा कर रहा हूं, उसका वास्तविक वास मंदिर, मस्जिद, गिरजाघर, गुरुद्वारा आदि धर्मस्थानों में नहीं है, विभिन्न धर्मशास्त्रों में भी उसका वास नहीं है। फिर उसका वास कहां है? उसका वास है-व्यक्ति-व्यक्ति की अंतरात्मा में, उसके जीवन में। जो धर्म व्यक्ति की आत्मा में नहीं रहता, जीवन और जीवन-व्यवहार में नहीं उतरता, वह धर्म वास्तव में धर्म है ही नहीं। धर्म जीने की कला है
मेरी दृष्टि में धर्म एकमात्र वह तत्त्व है, जो व्यक्ति को जीवन की सही राह पकड़ता है। इसलिए मैं उसे जीवन जीने की कला कहता हूं। धर्म शांति का मार्ग
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