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________________ ९२ : सुख-दुःख समभाव से सहें सुख और दुःख ये दोनों स्थितियां सामान्यतः संसार के हर प्राणी के जीवन के साथ जुड़ी रहती हैं। अध्यात्म का संदेश यह है कि दोनों ही स्थितियों में व्यक्ति को अपना संतुलन बनाए रखना चाहिए, समत्व में अवस्थित रहना चाहिए, विचलित नहीं होना चाहिए। वह बराबर यह सोचता रहे कि सुख और दुःख दोनों ही स्थायी नहीं हैं। यदि सुख आया है तो वह भी जानेवाला है और दुःख आया है तो वह भी जानेवाला है। जिस प्रकार वर्षा पूर्व की भयंकर गरमी (ऊमस) को वर्षा आने की पूर्व सूचना या संकेत मान अच्छा समझा जाता है, उसी प्रकार सुख से पूर्व आनेवाले भयंकर दुःख को सुख के आगमन की एक शुभ सूचना मान हंसते-हंसते झेल लेना चाहिए। दुःख जाता है तो उसे सुख दे जाता है और सुख जाता है तो उसे दुःख दे जाता है। आप जरा सोचें कि उस स्थिति से क्या लाभ, जो जाते समय दुःख देकर जाए। बहुत करके यह देखा जाता है कि सुख में जीनेवाले व्यक्ति प्रमादी, आलसी और विलासी होते हैं। उनकी पुरुषार्थ-चेतना सुप्त-सी बन जाती है। इसके विपरीत दुःख भोगनेवाले लोगों के जीवन में प्रायः पुरुषार्थ की ज्योति जलती रहती है। रूपक की भाषा में सुख संध्या का लाल क्षितिज है कि जिसके पीछे घोर अंधकार है तथा दुःख उषाकाल की लालिमा है कि जिसके पीछे उज्ज्वल प्रकाश-ही-प्रकाश है। सुख के क्षणों में व्यक्ति प्रायः सबको भूल जाता है, जबकि दुःख के क्षणों में वह स्वयं को ही नहीं, बल्कि परिवार, पास-पड़ोस, धर्म, परमात्मा सभी को याद रखता है। गहराई से देखा जाए तो दुःख एक कसौटी है। दुःख के क्षणों में ही मनुष्य की परख होती है कि वह स्वर्ण है या पीतल; अच्छा है या बुरा। दुःख में हिमालय की तरह अडिग रहनेवाले व्यक्ति ही संसार में महापुरुष कहलाते हैं और उनके नाम ही इतिहास के स्वर्ण पृष्ठों पर गौरव के साथ लिखे जाते हैं। उनके संसार से विदा हो जाने के पश्चात सुख-दुःख समभाव से सहें • २२५ . Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003113
Book TitleJyoti Jale Mukti Mile
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2005
Total Pages404
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size13 MB
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