SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 244
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्राप्ति में वह उतना ही बाधक है, जितना कि पाप। पाप और पुण्य दोनों का सर्वथा क्षय होने के बाद ही मोक्ष-सिद्धावस्था की प्राप्ति होती है। पुण्य के संदर्भ में एक बात और जान लेने की है। किसी क्रिया या प्रवृत्ति से पुण्य का स्वतंत्र बंध नहीं होता। उसका बंधन धार्मिक क्रिया/प्रवृत्ति से होनेवाली आत्म-उज्ज्वलता के साथ आनुषंगिक फल के रूप में होता है। अर्थात धर्माचरण का मुख्य फल तो आत्म-विकास या आत्म-उज्ज्वलता है और गौण फल पुण्य का बंधन। धर्म के बारे में लोगों के मन में अनेक गलत अवधारणाएं हैं। उसे सम्यक रूप में समझनेवाले लोग थोड़े हैं। इस कारण उसके नाम पर बहुत-से गलत तत्त्वों को प्रोत्साहन और मान्यता प्राप्त है। मूलतः धर्म आत्मा का मौलिक गुण है। जो व्यक्ति उसमें जितना गहरा पैठता है, उसके जीवन में उतनी ही धार्मिकता प्रकट होती है। विस्तार में जाएं तो धर्म सहिष्णुता, क्षमा, मैत्री, शांति, शील, संयम, संतोष आदि आत्मगणों के विकास का नाम है। प्रियधर्मी और दृढ़धर्मी की इस धर्म के प्रति अभिरुचि और निष्ठा होती है। अश्लील साहित्य से बचें धर्म-तत्त्व को आत्मसात करने की दृष्टि से सत्साहित्य का स्वाध्याय अत्यंत उपयोगी है, पर आज के जन-मानस में सत्साहित्य पढ़ने की रुचि बहुत कम देखने को मिलती है। उसकी जगह लोग असत व अश्लील साहितय पढ़ने में समय बर्बाद करते हैं। यह भी एक कठिनाई है कि आम लोगों में इतना हंस-विवेक नहीं होता कि वे दूध-दूध पी लें और पानी-पानी छोड़ दें। मैं सुधारवादी युवकों से कहना चाहता हूं कि वे कोई ऐसा प्रबंध करें, जिससे उनके यहां ऐसा साहित्य न आ पाए, जो जीवन को पतित करे, विकारग्रस्त बनाए। मैं बलपूर्वक कहना चाहूंगा कि सुधार के क्रम में पहला सुधार या बुराइयों के प्रतिकार की दिशा में पहला प्रतिकार अश्लील और असत्साहित्य पर रोक लगाने का हो। प्रभु निवास हैसटिंगस, कलकत्ता ५ जुलाई १९५९ • २२० - - ज्योति जले : मुक्ति मिले Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003113
Book TitleJyoti Jale Mukti Mile
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2005
Total Pages404
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy