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________________ ८९ : धर्मनिष्ठ की पहचान दृढ़धर्मी-प्रियधर्मी तेजोलेश्या के कुछ लक्षणों की चर्चा मैंने कल के प्रवचन में की थी। उसी क्रम में प्रियधर्मिता और दृढ़धर्मिता-ये दो लक्षण तेजोलेश्या के और हैं। तेजोलेश्यावाला व्यक्ति असंदिग्ध रूप में प्रियधर्मी होगा, दृढ़धर्मी होगा। प्रियधर्मी का तात्पर्य है-जिसे धर्म प्रिय है। दृढ़धर्मी का आशय है जो धर्म में दृढ़ है, मजबूत है। ये दोनों विशेषण ऊर्ध्वगामी जीवों के लिए हैं, पर इस संदर्भ में एक बात समझ लेने की है। कोई भी जीव ऊर्ध्वगामी दूसरों के बनाए नहीं बनता। वह बनता है अपने उच्च आचार और भावना से। ऐसे व्यक्ति, जिनकी धर्म के प्रति आंतरिक अभिरुचि है, लगाव है, निष्ठा है, धार्मिक क्रियाओं के प्रति उत्साह है, जो धर्मसंघ की उन्नति एवं अभिवृद्धि के लिए सतत जागरूक रहते हैं, वे प्रियधर्मी और दृढ़धर्मी हैं। धर्म को समस्त संसार में प्रसारित करने की दृष्टि से उनका चिंतन चलता ही रहता है, ताकि उनके कल्याण के साथ-साथ संसार के अनन्य प्राणी भी कल्याण-पथ के पथिक बन सकें। इस कोटि के लोग आत्मोत्थान या आत्म-उज्ज्व लता के साथ-साथ प्रचुर पुण्य का संचय भी कर लेते हैं। यहां तक कि उत्कृष्ट परिणाम में वे तीर्थंकरनाम- गोत्रकर्म तक का बंधन भी कर सकते हैं। तीर्थंकरनामगोत्र पुण्य की उत्कृष्ट प्रकृति मानी गई है। जब भी कोई तीर्थंकर बनता है, तब वह तीर्थंकरनामगोत्र नामक इस पुण्य-प्रकृति के उदय के परिणामस्वरूप ही बनता है। मात्र केवलज्ञान प्राप्त कर लेने से कोई तीर्थंकर नहीं बनता। पुण्य भी बंधन है पुण्य की बात जब आ गई है तो प्रसंगवश एक बात स्पष्ट कर दूं। पुण्य भी पाप की तरह बंधन है। यद्यपि पुण्य से सुख-सुविधा, भोगविलास और यहां तक कि मनुष्यभव एवं देवभव भी मिलता है, पर मोक्ष धर्मनिष्ठ की पहचान • २१९ . Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003113
Book TitleJyoti Jale Mukti Mile
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2005
Total Pages404
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size13 MB
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