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घुटने टेक देता है। जहां चरित्र-बल है, वहां अन्य साधनों के अभाव में भी पौरुष मूर्तिमान रहता है। वहां आत्म-बल कभी तिरोहित नहीं होता। मैं एक कटु सत्य प्रकट कर रहा हूं कि आजकल के अधिकतर चलचित्र बच्चों, युवकों और बूढ़ों को अश्लील नृत्य व अश्लील संगीत के द्वारा जिस प्रकार कामुकता की ओर ढकेल रहे हैं, उसी प्रकार यदि बहुत दिनों तक यह क्रम चालू रहा तो देश की नैतिक अधोगति सुनिश्चित है। सिनेमा का प्रभाव आज कुछ ही लोगों तक सीमित नहीं रहा है। सबसे अधिक जनसंख्या को प्रभावित करनेवाली कोई चीज आज है तो वह है-सिनेमा। आज मंदिरों, गुरुद्वारों, मस्जिदों, गिरिजाघरों से भी अधिक भीड़ सिनेमाघरों पर देखी जाती है। इस व्यापक प्रभाव का ऐसा छिछला उपयोग ही होता रहे, यह अवश्यमेव एक गंभीर विचारणीय बिंदु है। व्यक्ति-सुधार से वर्ग-सुधार
मुझे यह जानकर प्रसन्नता है कि देश में सिनेमा के क्षेत्र में अश्लीलता रोकने के पक्ष में बृहत जन-मत तैयार हो रहा है। सरकार भी इस दिशा में प्रयत्नशील है। सिनेमा-जगत में काम करनेवाले अनेक प्रमुख लोग भी इस दिशा में बहुत-कुछ सोच रहे हैं। आज का यह सम्मेलन इसी बात की ओर संकेत करता है। अणुव्रत-आंदोलन प्रत्येक व्यक्ति व प्रत्येक समुदाय में एक नैतिक हलचल देखना चाहता है। इसी लिए इसका नाम आंदोलन है। अणुव्रत-आंदोलन की यह मान्यता है कि सुधार कानून के द्वारा थोपा नहीं जा सकता। वह हृदय-परिवर्तन से ही आ सकता है। व्यक्ति-व्यक्ति और प्रत्येक वर्ग जब स्वयं सुधर जाने के लिए एकमत होकर कटिबद्ध हो जाता है, तभी सुधार का क्रम बनता है।
सिनेमा के क्षेत्र में भी निर्माता, निदेशक, अभिनेता, अभिनेत्रियां आदि सभी लोग सुधार लाना चाहें तो कोई कारण नहीं कि वहां सुधार न आए। सुधार का आरंभ कहां से
इस विषय में जो सबसे बड़ा तर्क दिया जाता है, वह यह कि सुधार की शुरुआत जनता से ही होनी चाहिए। जन-रुचि बदलने के बाद ही फिल्म-निर्माता परिवर्तन/सुधार की बात सोच सकते हैं। इस संदर्भ में मेरा चिंतन यह है कि सुधार का प्रारंभ दोनों ओर से होना चाहिए। जनरुचि भी बदले और फिल्म-निर्माताओं की व्यवसाय-मनोवृत्ति भी बदले।
भारतीय संस्कृति का लक्ष्य : चरित्र-विकास
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