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जो मनुष्य को मुक्ति अर्थात श्रेयस की ओर प्रेरित करती हो। आज भी यदि कला का लक्ष्य केवल मनोरंजन या विलासवाद ही हो तो भारतीय संस्कृति उसे कला के रूप में स्वीकार नहीं करती।
हालांकि प्राचीन संस्कृत साहित्य में, विशेषकर काव्यों, महाकाव्यों व नाटकों में भी शांत, अद्भुत आदि रसों के साथ-साथ शृंगार रस को भी स्थान दिया गया है, तथापि उन काव्यों आदि का ध्येय केवल श्रृंगार-तृप्ति नहीं रह जाता। अधिकतर काव्य पाठक को श्रेय की ओर प्रेरित करनेवाले ही मिलते हैं। श्रृंगार रस भी वहां एक सीमित व सम्मत परिभाषा में प्रकट होता है। अशिष्ट वर्णनों को न काव्य माना गया है और न शृंगार रस ही। सिनेमा-जगत और साहित्य में अब तक यह बहुत बड़ा स्तर-भेद है। चरित्र-बल का देश
प्राचीन काव्य-कला का आधुनिक रूप सिनेमा है। इसका विकास बहुत ही स्वल्पकालीन अवधि में हुआ है और द्रुतगति से और भी होता जा रहा है, यह स्पष्ट है। भारतवर्ष इस क्षेत्र में अगुआ देशों में है, यह सुना जाता है। भारतवर्ष निकट अतीत में ही स्वतंत्र हुआ है। एक लंबी पराधीनता के बाद छत्तीस कौमों के लोगों को अपने भविष्य का अपने हाथों निर्माण करने का अवसर मिला है। व्यक्ति, समाज और देश से संबद्ध जीवन के प्रत्येक पहलू में एक नया मोड़ आ रहा है। ऐसे वातावरण में भारतवासियों को विशेष जागरूकता के साथ काम लेना होगा। यह न हो कि वे संस्कृति के नाम पर प्राचीन रूढ़ियों व अंधविश्वासों से चिपक जाएं और प्रगति के नाम पर किसी सभ्यता व संस्कृति का अंधानुकरण करने लग जाएं। सिनेमा के क्षेत्र में भी कुछ पश्चिम का अंधानुकरण चल पड़ा है-ऐसा लगता है। हो सकता है, जहां खाओ, पिओ और आनंद करो के सिद्धांत की प्रमुखता हो, वहां सिनेमाजगत में निम्नस्तरीय विलास-प्रदर्शन वांछित हो, परंतु भारतवर्ष की स्थिति इससे सर्वथा भिन्न है। यहां तो चरित्र-बल अर्जित करना चिंतन का मेरुदंड रहा है। यह सही भी है। इतिहास बताता है, जो देश और समाज विलास की दिशा में आगे बढ़ा, वह अपने पैरों के बल पर खड़ा नहीं रह सका। बहुत-सी जातियां विलासप्रधान मनोवृत्ति के कारण धूलिधूसरित हो गईं। जहां चरित्र-बल नहीं है, वहां क्लीवता है। वह व्यक्ति या समाज थोड़ी भी प्रतिकूल स्थिति सह नहीं सकता, प्रतिपक्षी के सामने •२१०
- ज्योति जले : मुक्ति मिले
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