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________________ ८६ : भारतीय संस्कृति का लक्ष्य : चरित्र-विकास* भारत सदा से धर्म-प्रधान देश रहा है। यहां अर्थ और काम को जीवन-ध्येय कभी नहीं माना गया। यहां मोक्ष-प्राप्ति ही जीवन का परम लक्ष्य रहा है और धर्म उसका साधन। यद्यपि यहां के लोग विद्या, अर्थ, नाट्य, संगीत आदि के क्षेत्र में भी अन्य देशों की अपेक्षा ऊंचे रहे हैं, पर वे सर्वोच्च सम्मान व सर्वोच्च पूज्य-भाव त्याग, संयम व चरित्रबल को ही देते रहे हैं। यही कारण है कि एक अकिंचन परिव्राजक के सामने पृथ्वीपति सम्राट, जनमान्य धनकुबेर, दिग्गज विद्वान, विश्वविश्रुत कलाकार नतमस्तक होते रहे हैं और आज भी हो रहे हैं, क्योंकि उस अकिंचन परिव्राजक के जीवन में निश्छल तपःसाधना, शत्रु-मित्र के प्रति समता का भाव और निःश्रेयस-प्राप्ति की सात्त्विक स्पृहा होती है। यहां के चिंतनपरक मनीषी इन दृश्य नेत्रों से भी आगे अपने अंतश्चक्षुओं से देखा करते थे। बाह्य कानों से भी अधिक अपनी अंतश्चेतना से सुना करते थे। सृष्टि का अलभ्य रहस्य उन्होंने समझा था। उन्होंने कभी नहीं कहा-यावज्जीवेत् सुखं जीवेत्, ऋणं कृत्वा घृतं पीबेत्। अतः यह निःसंदेह कहा जा सकता है कि भारतीय संस्कृति का लक्ष्य चरित्र-विकास है। अपना चरित्र खोकर कुछ भी पा लेना, यहां घाटे का सौदा माना गया है। कला का लक्ष्य नृत्य और संगीत भारतीय विद्या के प्रमुख अंग रहे हैं। बहुधा भारतीय मानस इन कलाओं का उपयोग भगवत्भक्ति के रूप में करता रहा है। संभव है, इसी लिए इन कलाओं की शिक्षा को विद्या का अंग माना गया था। उस युग में विद्या की परिभाषा थी-सा विद्या या विमुक्तये- विद्या वह है, *सिने-सम्मेलन में प्रदत्त प्रवचन। भारतीय संस्कृति का लक्ष्य : चरित्र-विकास -२०९. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003113
Book TitleJyoti Jale Mukti Mile
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2005
Total Pages404
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size13 MB
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