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२. दूसरों के विचारों के प्रति सहिष्णुता रखी जाए।
३. दूसरे संप्रदायों और उनके साधु-साध्वियों के प्रति घृणा और तिरस्कार की भावना का प्रचार न किया जाए ।
४. कोई संप्रदाय - परिवर्तन करे तो उसके साथ सामाजिक बहिष्कार आदि के रूप में कोई अवांछनीय व्यवहार न किया जाए। ५. धर्म के मौलिक तत्त्व-अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह को जीवनव्यापी बनाने का सामूहिक प्रयत्न किया
जाए।
इस पंचसूत्रीय योजना को कार्यरूप देने के गर्भ में मैं जैन- शासन के बहुत बड़े हित के दर्शन करता हूं।'
समय की मांग
जैन - एकता आज समय की मांग है। हमें युग की यह मांग गंभीरता से समझनी चाहिए, बल्कि पूरी करनी चाहिए। मेरा विश्वास है, यदि सभी संप्रदाय के लोग निष्ठापूर्वक इन सूत्रों को स्व मर्यादा के रूप में अपना लें तो जैन - एकता आसानी से फलित हो जाए ।
हम अपनी मान्यताओं / विचारों/सिद्धांतों का प्रचार-प्रसार करें, खुलकर प्रचार-प्रसार करें, इसमें कोई कठिनाई नहीं है, कोई संकीर्णता नहीं है, पर उसकी मर्यादा यह है कि हम दूसरों की मान्यताओं / विचारों/ सिद्धांतों के खंडन से सलक्ष्य बचें। उन पर किसी प्रकार का लिखितमौखिक आक्षेप प्रक्षेप न करें। यह मर्यादा पारस्परिक सौहार्द एवं एकता के लिए बहुत आवश्यक है।
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यह तो बहुत स्पष्ट है कि विचार-भेद है। हाथ की पांचों अंगुलियां भी समान नहीं होतीं, तब भला सबके विचार एक सरीखे कैसे हो सकते हैं ? इसकी तो कल्पना करना ही व्यर्थ है। इस स्थिति में हमारा काम यह है कि हम अनेकांत - दृष्टि से विरोधी विचारों में भी सत्य खोजें। कोई विचार सही लगे तो उसे ग्राहकबुद्धि से निःसंकोच भाव से स्वीकार कर लें और यदि न लगे तो उसे विचारभेद की सीमा तक ही सीमित रखें। उसे मन-भेद का रूप न दें। उसके कारण लड़ें-झगड़ें नहीं । विचार-भेद के कारण परस्पर लड़ना - झगड़ना धार्मिकता की दृष्टि से तो सर्वथा अशोभनीय है ही, मानवता की दृष्टि
ज्योति जले : मुक्ति मिले
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