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________________ साधु-समुदायों ने उनके उपर्युक्त आह्वान की उपेक्षा की। उसे स्वीकार नहीं किया। करते भी कैसे? सुख-सुविधाएं छोड़ने का साहस वे जुटा नहीं पाए; और बिना इस साहस के यह संभव नहीं था। इस कारण जैनों के अन्यअन्य संघों में वह एकसूत्रता नहीं आ सकी, जो तेरापंथ संघ में आई। मैं देख रहा हूं, आज श्रमण संघ को एकसूत्र में बांधने का प्रयास हो रहा है। प्रयास अच्छा है, स्तुत्य है। यह दूसरी बात है कि इसमें सफलता कहां तक मिलती है। प्रसंग अमर मुनि का आगरा में कवि अमर मुनि से मिलना हुआ। उनकी बात से मुझे ऐसा अनुभव हुआ कि जैन-समाज की युगीन समस्याओं के संदर्भ में वे काफी चिंतन-मनन करते हैं। वार्तालाप के दौरान एक प्रसंग में मैंने उनसे कहा- आचार्य भद्रबाह, स्कंदिल और देवर्द्धिगणी क्षमाश्रमण के नेतृत्व में आगमों की पूर्व में तीन बार वाचना हो चुकी है। आवश्यकता है कि अब उनकी चौथी वाचना हो।' अमर मुनि ने सहमति के स्वर में कहा-'होनी ही चाहिए। मैंने पूछा-'कैसे हो?' अमर मुनि बोले-'यदि आप चाहें तो।' मैंने कहा-'यदि प्रत्येक संप्रदाय अपना प्रतिनिधि चुने तो मैं तो बिलकुल तैयार हूं।' अत्यंत प्रमोद भाव के साथ अमर मुनि ने कहा-'आपके पूर्वज तो दूरदर्शी थे, इसलिए आपके समक्ष इस संबंध में कोई समस्या नहीं है।' बिना रुके ही वे आगे बोले-'पर एक नेतृत्व की परंपरा और मर्यादा के अभाव में हमारे लिए यह कार्य दुरूह बन रहा है। हमारे सामने प्रश्न है कि प्रतिनिधि कौन चुने और किसे चुने। इस दृष्टि से यह कार्य अत्यंत महत्त्वपूर्ण एवं आवश्यक होते हुए भी असंभव-सा लगता है।' ___ उनकी यह बात सुन मुझे लगा कि जैन-संप्रदायों की वर्तमान स्थिति के कारण वे अत्यंत चिंतित एवं व्यथित हैं । उन्होंने बड़ी बेबाकी से एक कटु यथार्थ प्रकट किया है। मैंने कहा-'जो बात असंभव-सी लगती है, उसे एक बार छोड़ें, किंतु जो संभव है, उसे तो क्रियान्वित करें। मैंने जैन-संप्रदायों की एकता की दृष्टि से एक पंचसूत्रीय योजना प्रस्तुत की है। सबके सहयोगात्मक रुख से उसे कार्यरूप दिया जा सकता है। पांच सूत्र ये हैं१. मंडनात्मक नीति बरती जाए। अपनी मान्यता का प्रतिपादन किया जाए। दूसरों पर मौखिक या लिखित आक्षेप न किया जाए। जैन-एकता का पथ - २०५. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003113
Book TitleJyoti Jale Mukti Mile
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2005
Total Pages404
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size13 MB
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