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८५ : जैन-एकता का पथ
संगठन का मूल
तेरापंथ-प्रणेता आचार्य भिक्षु एक महान आध्यात्मिक विभूति तो थे ही, एक कुशल संगठनकार भी थे। अपनी सूक्ष्म दृष्टि से उन्होंने तात्कालिक विभिन्न संगठनों का गहरा अध्ययन किया और उसके आधार पर वे इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि किसी संगठन का मूल मर्यादा है। मर्यादाविहीन संगठन प्राणशून्य शरीर के समान होता है। जिस प्रकार प्राणशून्य शरीर मात्र अस्थि-पंजर होता है, उसी प्रकार मर्यादारहित संगठन मात्र ढांचा होता है। वह उपयोगी नहीं बन सकता, अपने उद्देश्य में सफल नहीं हो सकता, बल्कि लंबे समय तक अपना अस्तित्व भी नहीं बचा सकता। महापुरुष का लक्षण
आज बीसवीं शताब्दी में प्रबुद्ध लोग संगठन के जिस परिष्कृत रूप का चिंतन कर रहे हैं, आवश्यकता महसूस कर रहे हैं, उसका व्यवस्थित प्रारूप उन्होंने दो शताब्दी पूर्व ही प्रस्तुत कर दिया था। महापुरुष का यह एक प्रमुख लक्षण है कि सामान्य लोग जो बात आज देखते हैं, उसे वे अपने ज्ञान-चक्षुओं से बहुत पहले देख लेते हैं। साधु-समाज को लक्ष्य कर उन्होंने कहा-'शिष्यों का मोह छोड़ो। अलग-अलग शिष्य बनाने से संगठन की नींव कमजोर हो जाएगी। अतः एक आचार्य के अनुशासन में संयम की साधना करो, उनकी आज्ञा का सम्यक रूपेण पूरा-पूरा पालन करो। शिथिलाचार एवं सुविधावाद से दूर रहो। नाम, ख्याति एवं पद की लिप्सा छोड़ो।'
अपने तेरापंथ संघ के साधु-साध्वियों के लिए तो उन्होंने इन भावनाओं से संबद्ध अनेक मर्यादाएं भी बना दी और सबकी सहमतिपूर्वक उन्हें संघ में अनिवार्य रूप से लागू कर दिया, पर तत्कालीन दूसरे-दूसरे • २०४०
- ज्योति जले : मुक्ति मिले
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