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८४ : लेश्या : एक विवेचन
लेश्या जैन दर्शन का एक पारिभाषिक शब्द है। लेश्या का अर्थ हैजीव के शुभाशुभ आत्म-परिणाम । उत्तराध्ययन सूत्र के चौंतीसवें अध्ययन में छह लेश्याओं का विस्तृत विवेचन प्राप्त है। इनमें से प्रथम तीन लेश्याओं को अशुभ (अधर्म) तथा अंतिम तीन लेश्याओं को शुभ (धर्म) कहा गया है।
सांसारिक आत्मा द्वारा पुद्गलों का ग्रहण होता है। वे पुद्गल व्यक्ति के परिणामों/भावधारा को प्रभावित करते हैं। अशुभ पुद्गल भावधारा को अशुभ और शुभ पुद्गल भावधारा को शुभ बनाते हैं। आत्मा की भावधारा को भाव लेश्या और उनके सहायक पुद्गलों को द्रव्य लेश्या कहा जाता है। शुभ और अशुभ भावधारा की तरतमता के आधार पर ही लेश्या को छह भागों में विभक्त किया गया है - १. कृष्ण लेश्या २. नील लेश्या ३. कापोत लेश्या ४. तेजोलेश्या ५. पद्म लेश्या ६. शुक्ल लेश्या
कृष्ण लेश्या सर्वाधिक अशुभ है। नील लेश्या उसकी अपेक्षा कम अशुभ है। यानी उसके बनिस्बत वह शुभ है। इसी प्रकार आगे की लेश्याएं क्रमशः अधिक शुभ हैं। इस क्रम में शुक्ल लेश्या सर्वाधिक शुभ है।
छहों लेश्याओं के परिणामों की तरतमता हम इस प्रकार समझ सकते हैं - एक व्यक्ति के आत्म- परिणाम इतने क्रूर हैं कि कुछ एक फलों के लिए वह पूरा वृक्ष ही काट गिराता है। दूसरा उसी आवश्यकता - - पूर्ति के लिए मात्र वृक्ष की शाखाएं ही काटता है। तीसरा केवल टहनियां काटता है । चौथा केवल फलों के गुच्छे तोड़ता है। पांचवा मात्र फल तोड़ता है। इस क्रम में छठा केवल वे फल लेता है, जो हवा के झोंकों से टूटकर स्वतः नीचे गिर गए हैं। इन छहों में पहले व्यक्ति के परिणाम कृष्ण लेश्या के हैं और छठे व्यक्ति के शुक्ल लेश्या के।
लेश्या : एक विवेचन
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२०१०
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