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प्रासंगिक रूप में पुण्य के संदर्भ में थोड़ा-सा बता देना आवश्यक समझता हूं। बहुत-से लोग पुण्य को अच्छा समझते हैं, उपादेय मानते हैं, पर तात्त्विक दृष्टि से तो वह पाप की तरह हेय ही है। यह ठीक है कि पुण्य से भौतिक सुख-सुविधाएं, अनुकूलताएं प्राप्त होती हैं, स्वर्ग और स्वर्गीय सुखों की उपलब्धि होती है, पर है तो वह बंधन ही। इसलिए मोक्ष की प्राप्ति में वह उतना ही बाधक है, जितना कि पाप। मोक्ष-प्राप्ति के लिए पाप और पुण्य दोनों से समान रूप से छूटना जरूरी है।
दूसरी बात-पुण्य का स्वतंत्र बंधन नहीं होता। वह धार्मिक क्रिया से होनवाली आत्म-उज्ज्वलता के साथ ही होता है। देवत्व की प्राप्ति, जैसाकि मैंने अभी कहा, उसी पुण्य के योग से होती है।
प्रभु निवास हेस्टिंगस, कलकत्ता ११ जून १९५९
ज्योति जले : मुक्ति मिले
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