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८२ : देवायुष्य बंधन के कारण
आयुष्य के चार प्रकारों में एक प्रकार है-देवायुष्य। देवायुष्य-बंधन का कारण है-सराग संयम। विस्तार में कहा जाए तो चार कारण हैं१. सराग संयम २. संयमासंयम ३. बाल तपस्या ४. अकाम निर्जरा। ___ सराग संयम से तात्पर्य है-रागावस्था या अवीतरागावस्था का संयम। यह छठे गुणस्थान से दसवें गुणस्थान तक की स्थिति है। संयमासंयम का अर्थ है-संयम और असंयम दोनों का मिश्रित रूप। सीधी भाषा में कहा जाए तो श्रावकपन। श्रावक संयम की आंशिक आराधना करता है, शेष उसके जीवन में असंयम होता है। यह पांचवें गुणस्थान की स्थिति है। बाल तपस्या यानी अज्ञानावस्था में या देखादेखी, बिना विवेक मात्र अनुकरण के रूप में की जानेवाली तपस्या। अकाम निर्जरा अर्थात मोक्ष-प्राप्ति के लक्ष्य के बिना की जानेवाली निर्जरा अथवा तरह-तरह की विपत्तियों, कष्टों, रोगों आदि के योग से सहज रूप से होनेवाली निर्जरा।
यों तो ग्रंथों में देवायुष्य-बंधन के उपर्युक्त चार कारण बताए गए हैं, पर जैन-दर्शन के अनुसार देवलोक या स्वर्ग जाने का कोई सीधा मार्ग नहीं है। मार्ग तो एक ही है-संयम-तप के द्वारा आत्म-शुद्धि या जीवन-शुद्धि का। उसके आनुषंगिक फल के रूप में पुण्य का बंधन होता है और उसके परिणामस्वरूप देवलोक यानी स्वर्ग की प्राप्ति होती है। आत्म-शुद्धि के साथ पुण्य की यह आनुषंगिकता ठीक वैसी है, जैसे मेघ के साथ बिजली। यहां समझने की बात यह है कि देवलोक या स्वर्ग का लक्ष्य स्थिर करना उचित नहीं है। लक्ष्य तो आत्म-उज्ज्वलता ही रहना चाहिए, मोक्ष ही होना चाहिए। संयम-तप का चरम लक्ष्य मोक्ष होता है, किंतु पूर्ण आत्म-विशुद्धि के अभाव में जब वहां तक पहुंचना संभव नहीं होता, तब पुण्य के योग से देवत्व की प्राप्ति होती है। देवायुष्य बंधन के कारण
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