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८१ : वंचनापूर्ण व्यवहार से बचें
जैन-दर्शन के अनुसार प्राणी मायापूर्ण व्यवहार के कारण तिर्यंचायुष्य अर्थात पशु, पक्षी, कीट, पतंगा, मिट्टी, पानी, वनस्पति आदि का जीवन प्राप्त करता है। वैदिक दार्शनिकों ने ईश्वर के अतिरिक्त समस्त संसार को माया बाताया है, पर जैन-दर्शन में वह कषाय का एक प्रकार है। क्रोध, मान, माया और लोभ के रूप में कषाय के चार प्रमुख भेद किए गए हैं। तात्पर्य यह कि जैन-दर्शन की मान्यता में माया एक बड़ा दोष है। इसकी परिधि में ऐसी अनेक प्रकार की दुष्प्रवृत्तियां चलती हैं, जो प्राणी के तिर्यंचायुष्य-बंधन में हेतुभूत बनती हैं।
__ थोड़े विस्तार में मायापूर्ण व्यवहार के चार प्रकार तिर्यंचायुष्य-बंधन के कारण बताए गए हैं। वे हैं-१. दंभचर्या २. निकृति ३. अलीक वचन ४. कूट तौल-माप।
दंभचर्या माया का पर्यायवाची है। निकृति से तात्पर्य है-एक दोष छिपाने के लिए दूसरा दोष करना। एक कपटपूर्ण व्यवहार किया। वह कपट प्रकट न हो जाए, इसलिए दूसरा कपटपूर्ण व्यवहार करना यह निकृति है। इसे गूढ़ माया भी कह सकते हैं। अलीक वचन यानी असत्य भाषण। कूट तौल-माप तो स्पष्ट ही है। तौल-माप में कमी-बेशी करना।
तिर्यंचायुष्य-बंधन में हेतुभूत इन चारों प्रवृत्तियों से बचने का व्यक्ति को सलक्ष्य प्रयत्न करना चाहिए, पर इस संदर्भ में एक बात और समझ लेने की है। ध्यान रखने के बावजूद व्यक्ति से जब-तब प्रमाद हो सकता है, जान-अनजान में दोष हो सकता है, मजबूरी में असद्व्यवहार हो सकता है। यह निश्चित है कि इस निमित्त अशुभ कर्मों का बंधन होता है। दैनिक जीवन में जान-अनजान में होनेवाले दोषों के कारण होनेवाले इस बंधन से छूटने के लिए सनातन धर्म में पांच यज्ञों की बात कही गई है। जैन-धर्म में उसके लिए बारह प्रकार की तपस्या का विधान है। वंचनापूर्ण व्यवहार से बचें
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