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________________ जाते हैं। इसके विपरीत कुछ ऐसे लोग भी देखने को मिलते हैं, जो भयंकर परिस्थितियों में भी शोक नहीं करते। कुछ व्यक्ति प्रिय-वियोग जैसी कठिन स्थिति आने पर एक बार शोकग्रस्त तो अवश्य हो जाते हैं, पर बहुत जल्दी संभल जाते हैं और स्वयं को शोक से मुक्त बना लेते हैं । गौतम गणधर की बात हम पढ़ते हैं। भगवान महावीर के निर्वाण की स्थिति में वे एक बार तो शोक की धारा में बह गए। चार ज्ञान से संपन्न होकर भी विलाप करने लगे। इसका भी एक कारण था । महावीर के साथ उनका संबंध इसी जन्म से नहीं, अपितु कई जन्मों से चला आ रहा था । इसलिए भगवान महावीर के निर्वाण की वह स्थित वे सहसा झेल नहीं पाए और शोकग्रस्त हो गए, पर शीघ्र ही उनकी भावधारा बदली। उनकी मोह की ग्रंथि का भेदन हुआ। इसके फलस्वरूप वे शोक से मुक्त हो गए और देखते-देखते उन्हें केवलज्ञान उपलब्ध हो गया । बहिनों में शोक की प्रवृत्ति कुछ ज्यादा ही देखने में आती है। किसी पारिवारिक जन की मृत्यु से वे शोकविह्वल बन जाती हैं, पति वियोग की स्थिति में शिर फोड़ लेती हैं, सती तक बन जाती हैं। इसके विपरीत कुछ-कुछ ऐसे उदाहरण भी देखने में आते हैं, जब बहिनें प्रिय-से-प्रिय के वियोग में भी रुदन तक नहीं करतीं। अपना मन चट्टान की तरह मजबूत बनाकर उस आघात को झेलती हैं। ऐसे आदर्श उपस्थित करना मोहनीय कर्म के क्षयोपशम का द्योतक है। घृणा करना अनुचित है तीसरी वृत्ति है जुगुप्सा । जुगुप्सा का अर्थ है - घृणा । जुगुप्सा की प्रवृत्ति किसी-न-किसी रूप में प्रायः हर सांसारिक प्राणी में देखने में आती है । यह भी चारित्रमोहनीय कर्म की पचीस प्रकृतियों में से एक प्रकृति है। इस प्रकृति के उदय के प्रभाव से प्राणी जुगुप्सा करता है। जुगुप्सा भले किसी प्रकार की हो, किसी कारण हो, वह अच्छी नहीं है, उपादेय नहीं है। कुछ लोगों के मन में गंदगी के कारण घृणा का भाव पैदा होता है । मैं समझता हूं, गंदगी को गंदगी जानना - समझना और उससे बचना तो ठीक है, पर उससे किसी प्रकार की घृणा करना उचित नहीं । प्रसंग मृगालोढ़ा का आगमों में मृगालोढ़ा का प्रसंग आता है। महारानी मृगावती का वह पुत्र था। भयंकर कटुकपरिणामी अशुभ कर्मों के उदय के कारण वह नाम , शोक और जुगुप्सा से बचें भय, Jain Education International For Private & Personal Use Only १८१ • www.jainelibrary.org
SR No.003113
Book TitleJyoti Jale Mukti Mile
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2005
Total Pages404
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size13 MB
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