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________________ मात्र का मनुष्य था। जन्म से ही उसका शरीर लोढ़े के आकार का था। इसी कारण वह मृगालोढ़ा कहलाया। और तो क्या, उसके खाने और मलोत्सर्ग का मार्ग भी एक ही था। जिस मुंह से वह कुछ खाता, उससे ही कुछ देर बाद उत्सर्ग भी कर देता। पूरे शरीर से भयंकर दुर्गंध फूटती थी। जिस तलघर में महारानी मृगावती उसे रखती थी, वहां साधारण आदमी का तो एक-दो क्षण खड़ा रहना भी कठिन हो जाए। महारानी मृगावती अपने मातृत्व के कारण उस स्थिति में भी उसका पालन-पोषण करती थी। अन्य किसी को उसकी कोई जानकारी नहीं थी, पर भगवान महावीर तो परम ज्ञानी थे। उनसे कुछ भी अज्ञात नहीं था। किसी प्रसंग में उन्होंने गौतम स्वामी को उसके बारे में जानकारी दी। सुनकर गौतम स्वामी के मन में उसे देखने की भावना पैदा हुई। भगवान की आज्ञा लेकर वे महारानी मृगावती के महल में पहंचे और उन्होंने राजकुमार मृगालोढ़ा को देखने की इच्छा व्यक्त की। सुनकर एक बार तो महारानी मृगावती को बड़ा आश्चर्य हुआ कि जिस राजकुमार के बारे में मेरे सिवाय किसी को कोई जानकारी नहीं है, वह रहस्य गौतम स्वामी तक कैसे पहुंचा, पर अगले क्षणों में ही वह समझ गई कि सर्वदर्शी भगवान महावीर के माध्यम से यह रहस्य गौतम स्वामी तक पहुंचा है। उसने गौतम स्वामी से निवेदन किया-'प्रभो! मेरा घर पावन कर आपने बड़ी कृपा की, पर जिस राजकुमार को देखने के आप इच्छुक हैं, वह देखने योग्य नहीं है। उसे देखने मात्र से मन में घृणा का भाव जागता है।' गौतम स्वामी ने कहा-'इसके लिए तुम्हें विचार करने की कोई जरूरत नहीं है। मैं यही तो जानना चाहता हूं कि ऐसी क्या स्थिति है।' गौतम स्वामी की उत्सुकता पर रानी उन्हें तलघर के पास ले गई। जैसे ही उसने तलघर का दरवाजा खोला दुर्गंध-ही-दुर्गंध फैल गई। मृगालोढ़ा लुढ़कता हुआ दरवाजे के पास आया। उसके समाने भोजन रखा गया। उसने भोजन किया और देखते-देखते ही उसी द्वार से मलोत्सर्ग भी कर दिया। सारी स्थिति देख-जानकर गौतम स्वामी कर्म-विपाक की विविधता एवं विचित्रता के चिंतन में खो गए, पर उन्होंने घृणा बिलकुल भी नहीं की। मैं आपसे यही कह रहा था कि व्यक्ति गंदगी को गंदगी जाने-समझे और उससे बचने का प्रयत्न करे, इसमें कुछ भी अनुचित नहीं है, पर गंदगी के प्रति घृणा का भाव करना ठीक नहीं। यह कर्म-बंधन का हेतु है। मैं देखता हूं, समाज में जातिविशेष और वर्णविशेष के लोगों के • १८२ - - ज्योति जले : मुक्ति मिले Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003113
Book TitleJyoti Jale Mukti Mile
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2005
Total Pages404
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size13 MB
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