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________________ ७७ : भय, शोक और जुगुप्सा से बचें तीन वृत्तियां भय, शोक और जुगुप्सा-ये तीन अलग-अलग वृत्तियां हैं। सब प्राणियों में इनकी मात्रा एक सरीखी नहीं होती। किसी प्राणी में भय की मात्रा ज्यादा होती है, किसी में शोक की और किसी में जुगुप्सा की। बावजूद इसके, इतना सुनिश्चित है कि इनकी मात्रा जितनी कम होती है, व्यक्ति का उतना ही हित है। भय हिंसा का जनक है भय आशंका का नाम है, जिसे कि जीतना बहुत कठिन है। हालांकि भय परिस्थितिजन्य भी होता है, तथापि इसका मूलभूत कारण मोहनीय कर्म का उदय है। मोहनीय कर्म में भी चारित्रमोहनीय कर्म का उदय है। चारित्रमोहनीय कर्म की पचीस प्राकृतियां बताई गई हैं। उन पचीस प्रकृतियों में से एक प्रकृति भय है। गहराई से देखा जाए तो भय हिंसा का जनक है। इसलिए भयाकुल प्राणी कभी अहिंसक नहीं बन सकता। अहिंसक बनने के लिए अभय बनना आवश्यक है। अभय या निर्भय बनने के लिए किसी परिस्थिति में न घबराने का दृढ़ निश्चय अत्यंत अपेक्षित है। इस दृढ़ निश्चय के द्वारा व्यक्ति कठिन-से-कठिन परिस्थिति को बिना भयग्रस्त हुए पार कर देता है। भय भले किसी प्रकार का क्यों न हो, वह व्यक्ति की दुर्बलता का द्योतक है। धार्मिक व्यक्ति के लिए यह बहुत आवश्यक है कि वह न तो स्वयं भयभीत बने और न औरों को भयभीत बनाए। शोक का कारण शोक बहुलांशतः मानसिक व्यथा से संबद्ध है। यह भी चारित्रमोहनीय कर्म की एक प्रकृति है। उस प्रकृति के उदय से व्यक्ति शोकग्रस्त बनता है। बहुत-से लोग अकारण चिंता करके शोकाकुल बन • १८० - ज्योति जले : मुक्ति मिले Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003113
Book TitleJyoti Jale Mukti Mile
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2005
Total Pages404
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size13 MB
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