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७६ : उपासक : उपासना : उपास्य
धर्म के क्षेत्र में उपासक, उपासना और उपास्य-ये तीन महत्त्वपूर्ण शब्द हैं। उपासना करनेवाला उपासक कहलाता है। उपासना से तात्पर्य है-अपने उपास्य की उपासना करना। जिसकी उपासना की जाती है, उसे उपास्य कहा जाता है।
__ पूछा जा सकता है कि उपासक कैसा हो। यह कोई अनिवार्य या आवश्यक नहीं कि उपासक धर्मात्मा हो। वह पापी-से-पापी भी हो सकता है, पर यह आवश्यक है कि वर्तमान में उसकी अंतःप्रवृत्ति उपासना की ओर हो।
दूसरी बात है उपासना की। उपासना की विधि ऐसी होनी चाहिए, जिसमें मन, वाणी और कर्म का यथासंभव ऐक्य हो। इस ऐक्य के बिना उपासना का पूरा-पूरा लाभ प्राप्त नहीं होता। इसके साथ ही उपासना के उद्देश्य की भी स्पष्टता होनी चाहिए। स्पष्टता से तात्पर्य है कि वह स्वयं को कृतार्थ करने के पवित्र उद्देश्य से होनी चाहिए। दूसरों को कृतार्थ करने का उद्देश्य सही उद्देश्य नहीं है।
तीसरी बात है उपास्य की। यह सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण है। उपास्य का सही-सही निर्णय होना चाहिए। पूछा जा सकता है कि उपास्य कौन होना चाहिए। उपास्य वह हो, जो छोटे-बड़े सभी के प्रति समभाव रखता हो, पतितपावन हो। यानी जो अपने संपर्क में आनेवालों को पापकारी प्रवृत्तियों से छुड़ाकर सत्प्रवृत्त करने की दृष्टि से जागरूक हो। साधु-संतों में यह गुणात्मकता प्राप्त होती है, इसलिए वे उपास्य होने के अधिकारी हैं, पर इस संदर्भ में एक बात बहुत ध्यान देने की है। कोई भी व्यक्ति साधु केवल वेश से नहीं, अपितु अपनी गुणात्मकता से होना चाहिए। साधु-वेश धारण कर लेने से ही कोई साधु नहीं हो जाता। वेश तो मात्र ऊपर की पहचान है। मूलतः तो साध्वोचित गुणों के प्रकट होने पर ही .१७८
- ज्योति जले : मुक्ति मिले
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