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७५ : ज्ञेय नव ही तत्त्व हैं
जैन-दर्शन में जीव, अजीव, पुण्य, पाप, आश्रव, संवर, निर्जरा, बंध और मोक्ष-ये नौ तत्त्व माने गए हैं। इनमें से जीव, अजीव, पुण्य, पाप, आश्रव और बंध-ये छह तत्त्व हेय या त्याज्य माने गए हैं तथा संवर, निर्जरा व मोक्ष-ये तीन तत्त्व ग्राह्य बताए गए हैं, पर बहुत समझने की बात यह है कि हेय और उपादेय-दोनों ही शेय बताए गए हैं। अर्थात नौ ही तत्त्व ज्ञेय हैं। इसका कारण यह है कि हेय और उपादेय दोनों को जाने बिना व्यक्ति हेय और उपादेय का विवेक नहीं कर सकेगा। और इस विवेक के बिना वह कैसे तो हेय तत्त्व छोड़ सकेगा और कैसे उपादेय तत्त्व ग्रहण कर सकेगा ? |
धर्माराधना की दृष्टि से भी व्यक्ति को हेय और उपादेय दोनों प्रकार के तत्त्वों का ज्ञान अपेक्षित है। जिस व्यक्ति को यह ज्ञान नहीं कि जीव क्या है और अजीव क्या है, वह जीवों के प्रति संयम कैसे रख सकेगा ? अहिंसा की पालना कैसे कर सकेगा? आत्मा को जाने-समझे बिना उसके लिए आत्माराधना कैसे संभव हो सकेगी? जैन-दर्शन में आत्मा के बारे में विशद विवेचन प्राप्त है। साधारणतया एक शरीर में एक आत्मा का होना निश्चित है, पर वनस्पति में इसके अपवाद भी हैं। एक वृक्ष की सभी पत्तियों, टहनियों, शाखाओं, फलों व बीजों में अलगअलग आत्मा/जीव हैं। वहां एक वृक्ष के आश्रित संख्यात, असंख्यात और अनंत जीव हो सकते हैं। एक शरीर में अनंत जीवोंवाली वनस्पति को निगोद की संज्ञा दी गई है। निगोद के दो भेद हैं-सूक्ष्म निगोद और बादर निगोद। सूक्ष्म निगोद के जीव पूरे लोक में व्याप्त हैं। वे हमारी आंखों के विषय नहीं हैं। बादर निगोद में प्याज, अदरक, शकरकंद, हलदी आदि का समावेश है। चालू भाषा में इन्हें जमीकंद भी कहते हैं। इनमें प्रत्येक शरीर अनंत जीवों का पिंड है। इसकी तुलना होमयोपैथिक दवा की गोलियों के साथ की जा सकती है। जिस प्रकार होमयोपैथिक
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- ज्योति जले : मुक्ति मिले
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