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एकमात्र पथ है। इसका दूसरा कोई विकल्प नहीं है। जो भी व्यक्ति अपना विकास, अभ्युदय और बंधन मुक्ति चाहता है, उसे प्रतिदिन आश्रव से मुक्त होने तथा संवर की ओर जाने का सतत प्रयास करना चाहिए। शब्दांतर से हम इन दोनों को आत्मा की क्रमशः वैभाविक एवं स्वाभाविक परिणतियां कह सकते हैं। व्यक्ति जैसे-जैसे वैभाविक परिणति छोड़कर स्वाभाविक परिणति अपनाता जाता है, वैसे-वैसे मिथ्या दृष्टिकोण, आंतरिक तृष्णा-लालसा, प्रमाद, कषाय व योगजन्य चंचलता से छुटकारा होता जाता है। इस क्रम में एक दिन वह मुक्ति तक पहुंच जाता है। व्यक्ति के लिए वह सर्वाधिक सौभाग्य का दिन होता है, जिस दिन वह पूर्ण संवर की स्थिति प्राप्त कर मुक्ति तक पहुंचता है।
कलकत्ता
२२ मई १९५९
संवर: मुक्ति का मार्ग
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