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७४ : संवर : मुक्ति का मार्ग
जैन-दर्शन आस्तिक दर्शनों में एक प्रमुख दर्शन है। यह आत्मा का त्रैकालिक अस्तित्व स्वीकार कर चलता है। बंधन से मुक्ति तक की संपूर्ण प्रक्रिया का इस दर्शन में वैज्ञानिक एवं सांगोपांग विश्लेषण प्राप्त होता है। कर्म-बंधन के हेतु को जैन-दर्शन में आश्रव कहा गया है। आश्रवद्वार से प्रतिक्षण कर्म-पुद्गलों का प्रवेश होता रहता है और इस प्रकार आत्मा कर्मों के बंधन से बंधती चली जाती है। कहा जा सकता है कि संसार में दुःख का कारण आश्रव ही है। उसके पांच प्रकार बताए गए है-मिथ्यात्व, अव्रत, प्रमाद, कषाय और योग। विस्तार में उसके बीस प्रकार भी किए गए हैं।
आश्रव के निरोध को संवर कहा जाता है। उससे नए कर्मों के बंधन की प्रक्रिया रुक जाती है। आश्रव की तरह उसके भी संक्षेप में पांच भेद किए गए हैं-सम्यक्त्व, व्रत, अप्रमाद, अकषाय और अयोग। विस्तार में बीस भेद भी प्राप्त हैं। यद्यपि पूर्ण संवर की साधना सरल नहीं है, यह स्थिति चौदहवें गुणस्थान में प्राप्त होती है, पर आंशिक संवर पांचवें गुणस्थान से शुरू हो जाता है। चार गुणस्थानों तक संवर की प्राप्ति बिलकुल नहीं होती। पांचवें गुणस्थान में उसका प्रारंभ होता है। सम्यक्त्व संवर पांचवें गुणस्थान से चौदहवें गुणस्थान तक होता है। व्रत संवर की प्राप्ति छठे से चौदहवें गुणस्थान तक है। पांचवें गुणस्थान में उसका अपूर्ण रूप होता है। अप्रमाद संवर सातवें गुणस्थान से चौदहवें गुणस्थान तक होता है। अकषाय संवर ग्यारहवें गुणस्थान से चौदहवें गुणस्थान तक प्राप्त होता है। अयोग संवर केवल एक चौदहवें गुणस्थान में होता है। वैसे साधु-साध्वियां जो शुभ योग का निरोध करते हैं, उसे भी अयोग संवर का ही अंश माना गया है। ___आश्रव और संवर दो ध्रुव हैं। भले आम लोगों को संवर का मार्ग अव्यावहारिक और कठिन लगे, पर आत्मोन्नति और मुक्ति का यह
- ज्योति जले : मुक्ति मिले
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