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है, उसे सत्य की उपलब्धि नहीं हो सकती।
मैत्री और प्रेम दोनों को सामान्यतः एक ही मान लिया जाता है। पर तत्त्वतः वे दोनों अलग-अलग हैं। मैत्री प्रेम से ऊंचा तत्त्व है। प्रेम लगभग सगे-संबंधियों एवं मित्रों तक सीमित रहता है, जबकि मैत्री इस दायरे से बाहर भी की जाती है। वस्तुतः मैत्री का क्षेत्र बहुत व्यापक है। प्राणिमात्र के साथ मैत्री करने का आदर्श हमारे सामने है।
मैत्री की प्रक्रिया गिरते हुए को ऊंचा उठाने की प्रक्रिया है। इस प्रक्रिया के द्वारा व्यक्ति अपने माता-पिता और गुरु के ऋण से उऋण हो सकता है, यह बहुत बड़ी उपलब्धि है, कयोंकि इन तीनों के ऋण से उऋण होना जन्म-जन्मांतरों तक असंभव माना गया है। सत्यान्वेषण तथा प्राणिमात्र के प्रति मैत्री के इस साधना-पथ पर हम सतत आगे बढ़ते रहें। हमारी सफलता असंदिग्ध है।
साहू निलय अलीपुर, कलकत्ता २१ मई १९५९
साधना-पथ
१७३.
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