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________________ ७३ : साधना-पथ अप्पणा सच्चमेसेज्जा मेत्तिं भूएसु कप्पए। यह अर्हत-वाणी है। यह साधना-पथ को प्रशस्त करनेवाला वचन है। सत्य का अन्वेषण और प्राणिमात्र के साथ मैत्री मात्र ये दो बातें साधना की सफलता और पूर्णता के लिए पर्याप्त हैं। सत्यान्वेषण का मार्ग बहुत सरल और सरस है। इसके लिए आवश्यकता इस बात की है कि सम्यक तत्त्वों के प्रवेश के लिए अपने मस्तिष्क का द्वार और खिड़कियां खुली रखी जाएं, अपने विचारों और बुद्धि में आग्रहहीनता या अनाग्रह को स्थान दिया जाए। गहराई से देखा जाए तो आग्रहहीनता समन्वय का मौलिक आधार है। यों विचार-भेद या मतभेद एक अपरिहार्य-सी स्थिति है। उससे सर्वथा मुक्त नहीं हुआ जा सकता। ऐसी परिस्थिति में हमारा काम है कि हम पारस्परिक मतांतर इस प्रकार सुलझाएं कि न्याय भी हो तथा तत्त्वों का उचित महत्त्व भी अक्षुण्ण रह सके। आप देखें, जैनों का एक वर्ग मूर्तिपूजा में विश्वास करता है तो दूसरा वर्ग नहीं करता। मूर्तिपूजा करनेवाला वर्ग और न करनेवाला वर्ग दोनों के ही अपने-अपने तर्क हैं। मुझे ऐसा लगता है कि दोनों पक्षों के आग्रह के कारण परस्पर विभेद की खाई चौड़ी हो गई है। इस संदर्भ में आग्रहहीनता का पथ यह होगा कि प्रतिमा, मंदिर आदि प्रभुस्मृति के निमित्त और साधन बन सकते हैं। उनके समक्ष परमात्मा और उनके गुणों का स्मरण हो सकता है, किंतु यह कहना उचित नहीं कि प्रतिमा, मंदिर आदि के बिना प्रभु की पूजा हो ही नहीं सकती। मूलतः प्रभु-पूजा का संबंध अपने मन और भावों से है, स्थानविशेष से नहीं। स्थानविशेष के साथ उसकी प्रतिबद्धता प्रतिपादित करना आग्रहवादिता का द्योतक है। इसी प्रकार यह कहना भी आग्रहवादिता का प्रकटीकरण है कि मूर्ति से तो चक्की ही अच्छी है। सत्य का साधक कभी आग्रही नहीं हो सकता, और जो आग्रही होता .१७२ - - ज्योति जले : मुक्ति मिले Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003113
Book TitleJyoti Jale Mukti Mile
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2005
Total Pages404
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size13 MB
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