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६९ : लोभ : सबसे बड़ा खतरा है
जिस प्रकार आठ कर्मों में मोहनीय कर्म सबसे बलवान है, उसी प्रकार क्रोध, मान, माया और लोभ-इन चार कषायों में लोभ प्रमुख है। तात्त्विक भाषा में लोभ दसवें गुणस्थान तक भी मौजूद रहता है, जबकि क्रोध, मान और माया-ये तीनों नवें गुणस्थान के अंत में ही समाप्त हो जाते हैं। इससे लोभ की प्रमुखता स्वयंसिद्ध है।
लोभ एक अपेक्षा से जीवन का सबसे बड़ा खतरा है। यह क्रोध की तरह ऊपर प्रकट में तो दिखाई नहीं देता, पर अंदर-ही-अंदर सुलगता रहता है। सामान्य गृहस्थों की तो बात ही क्या, बहुत-से अपरिग्रही-अकिंचन साधु-साध्वियां भी इसके प्रभाव से बच नहीं पाते। वह प्रभाव अनेक रूपों में प्रकट होता है। इस लोभ के कारण ही मन में आसक्ति जनमती है, ममत्व पैदा होता है। जैन-ग्रंथों में उपलब्ध आषाढ़ मुनि का कथानक यह बात बहुत अच्छे ढंग से स्पष्ट और पुष्ट करता है। स्वादिष्ट लड्डुओं के प्रति आसक्ति एवं नटकन्याओं के प्रति ममत्व के कारण ही वे साधुत्व से च्युत होकर संसार की मोह-माया में फंसे थे। इसलिए बुद्धिमत्ता का तकाजा यही है कि व्यक्ति सदा सतर्क रहे, ताकि वह आसक्ति और ममत्व की गिरफ्त में न आए, लोभ उस पर प्रभावी न बन सके, उसकी विवेक-चेतना को आवृत न कर सके।
मैं देख रहा हूं कि समाज में अर्थ के प्रति ममत्व का एक अतिरिक्त भाव पैदा हो रहा है। इसके कारण अनेक प्रकार की दुष्प्रवृत्तियां जनम रही हैं, फल-फूल रही हैं। हां, कुछ-एक व्यक्ति ऐसे देखने में जरूर आते हैं, जो गृहस्थ की भूमिका में रहकर भी अर्थ के प्रति अपना दृष्टिकोण सम्यक बनाए रखते हैं। वे जीवनयापन के साधन के रूप में उसका उपयोग अवश्य करते हैं, पर उसे जीवन का साध्य नहीं समझते। वे उसके प्रति आसक्ति नहीं रखते, ममत्व नहीं करते। स्वयं को उसका स्वामी नहीं, अपितु संरक्षक समझते हैं। इस कोटि के लोग सचमुच
-- ज्योति जले : मुक्ति मिले
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