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________________ होता है। इस ज्ञान में भी अवधिज्ञान की तरह इंद्रियों और मन के सहयोग की कोई भूमिका नहीं होती। यह भी आत्मसापेक्ष ज्ञान है । मनःपर्यायज्ञानी मनोवर्गणा के पुद्गलों का विश्लेषण कर सामनेवाले व्यक्ति के मन की बात जानता है। वैसे अवधिज्ञानी भी मन की बात जान सकता है, पर वह उसे सामान्य स्तर पर ही जान पाता है । मनःपर्यायज्ञानी मन की बात का विशेषज्ञ होता है, किंतु एक बात यहां समझने की है । मनःपर्यायज्ञानी मात्र मन की बात जान सकता है, जबकि अवधिज्ञानी समस्त रूपी द्रव्यों का ज्ञान कर सकता है । मनःपर्याय ज्ञान मात्र साधु-साध्वियों (संयमी प्राणियों) को हो सकता है। यह उसकी प्राप्ति की अर्हता है। ऋजुमति और विपुलमति-ये मनः पर्याय ज्ञान के दो प्रकार हैं । मनःपर्याय ज्ञान को आवृत करनेवाले कर्म - पुद्गलों को मनः पर्याय ज्ञानावरण कहते हैं। केवलज्ञान संपूर्ण ज्ञान है। इसके द्वारा रूपी - अरूपी समस्त द्रव्यों एवं उनके त्रैकालिक समस्त पर्यायों का ज्ञान होता है। यह ज्ञान के चारों प्रकारों के ऊपर है। इसकी उपलब्धि के पश्चात मतिज्ञान आदि चारों ज्ञान कृतकृत्य हो जाते हैं। रूपक की भाषा में कहा जा सकता है कि केवलज्ञान सूर्य है और शेष चारों ज्ञान दीपक । यह पूर्ण प्रत्यक्ष ज्ञान है। यों तो आत्मसापेक्ष होने के कारण अवधि और मनःपर्याय ज्ञान को भी प्रत्यक्ष ज्ञान माना गया है, पर ये पूर्ण प्रत्यक्ष नहीं । पूर्ण प्रत्यक्ष मात्र केवलज्ञान है। इस ज्ञान को आवृत करनेवाले कर्म-पुद्गलों को केवल ज्ञानावरण कहा जाता है। ज्ञान की आवृत स्थिति को ज्ञानावरण कहा जाता है। उस स्थिति में प्राणी का ज्ञान अकर्मण्य और निष्क्रिय रहता है, पर इस संदर्भ में एक बात समझने की है। आवरण मात्र आवरण होता है, उससे ज्ञान किंचित भी नष्ट नहीं होता । आत्म- गुण के रूप में अनंत ज्ञान ज्यों-कात्यों मौजूद रहता है। जैसे आग पर राख होती है, उसी प्रकार वह ज्ञान पर कर्मों का आवरण होता है। राख के दूर हटते ही जिस प्रकार आग प्रकट हो जाती है, उसी प्रकार कर्मावरण दूर होते ही ज्ञान प्रकट हो जाता है। तप आदि की साधना से कर्मावरण दूर हटाया जा सकता है। हमें अपना ज्ञानावरण दूर हटाने की साधना में अपने पुरुषार्थ का नियोजन करना चाहिए। जिस दिन संपूर्ण रूप से यह आवरण दूर हट जाएगा, उस दिन हम आत्मप्रकाशी बन जाएंगे, केवलज्ञानी बन जाएंगे। आत्मप्रकाशी बनना, केवलज्ञान को उपलब्ध होना जीवन के सौभाग्य का सूचक है। सूरज जूट प्रेस, काशीपुर, ३० अप्रैल १९५९ ज्ञानावरणीय कर्म के पांच भेद Jain Education International For Private & Personal Use Only १५७• www.jainelibrary.org
SR No.003113
Book TitleJyoti Jale Mukti Mile
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2005
Total Pages404
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size13 MB
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