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६५ : ज्ञानावरणीय कर्म के पांच भेद
कल के प्रवचन में मैंने आठ कर्मों की चर्चा की थी। उनमें पहला कर्म है-ज्ञानावरणीय कर्म। उसके पांच भेद बताए गए हैं
१. मति (अभिनिबोध) ज्ञानावरण २. श्रुत ज्ञानावरण ३. अवधि ज्ञानावरण ४. मनःपर्याय ज्ञानावरण ५. केवल ज्ञानावरण।
ज्ञानावरणीय कर्म और उसके भेद-प्रभेद समझने के लिए सर्वप्रथम यह जानना-समझना आवश्यक है कि ज्ञान क्या है और कहां है। ज्ञान आत्मा का एक मूल गुण है। दूसरे शब्दों में उसे आत्मा की शक्ति और ज्योति भी कह सकते हैं। उसे जीवन भी माना गया है। गीता में उसे रसायन और ऐश्वर्य बताया गया है; और यह ऐसा रसायन और ऐसा ऐश्वर्य है कि जिसे कोई छीन नहीं सकता। इसका स्रोत अंतर में सर्वत्र प्रवाहित होता रहता है।
जो ज्ञान इंद्रियों एवं मन के निमित्त होता है, वह मतिज्ञान है। इसमें बुद्धि और मन का उपयोग होता है। इसे आभिनिबोधक ज्ञान भी कहते हैं। इस ज्ञान को आवृत करनेवाले पुद्गलों को मति ज्ञानावरण कहते हैं।
शब्द, संकेत आदि के अनुरूप दूसरों को समझाने में समर्थ ज्ञान श्रुतज्ञान है। इसके अक्षरश्रुत, अनक्षरश्रुत आदि चौदह भेद हैं। इस ज्ञान को आवृत करनेवाले कर्म-पुद्गलों को श्रुत ज्ञानावरण कहा जाता है।
इंद्रियों एवं मन के सहयोग के बिना केवल आत्मा के द्वारा होनेवाला ज्ञान अवधिज्ञान है। यह ज्ञान रूपी द्रव्यों के ज्ञान तक ही सीमित रहता है। अरूपी द्रव्यों का ज्ञान इसके सीमा-क्षेत्र से परे की बात है। अवधिज्ञान अवधानसापेक्ष है। यानी व्यक्ति को ज्ञेय वस्तु पर एकाग्र होना पड़ता है। उसी स्थिति में वह उसका ज्ञान कर पाता है। इसके हीयमान, वर्द्धमान आदि छह प्रकार बताए गए हैं। इस ज्ञान को आवृत करनेवाले पुद्गलों को अवधि ज्ञानावरण कहा जाता है।
मनःपर्याय ज्ञान के द्वारा व्यक्ति की मानसिक अवस्थाओं का ज्ञान • १५६ -
- ज्योति जले : मुक्ति मिले
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