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है। फिर वे टिक नहीं पाते। उसी जन्म में वे भी आत्मा से सदा-सदा के लिए अलग हो जाते हैं। परिणामतः प्राणी अनंतकालीन भवभ्रमण से छूटकर मोक्ष में पहुंच जाता है। इस परिप्रेक्ष्य में देखा जाए तो हमारी सारी साधना मोहनीयकर्म को क्षीण करने के लिए ही है।
पांचवा कर्म आयुष्य कर्म है। यह आत्मा के अटल अवगाहन गुण का अवरोधक है। प्राणी संसार में इस कर्म के उदय के कारण ही जीता है। जब यह कर्म वह भोग लेता है, तब उसकी मृत्यु हो जाती है और अगले भव में चला जाता है। इस कर्म का संपूर्ण क्षय हुए बिना मोक्ष की प्राप्ति नहीं होती।
छठा नाम कर्म है। यह आत्मा के अमूर्तित्व गुण का रोकता है। इस कर्म के उदय के कारण ही प्राणी को विभिन्न जातियों, गतियों, दंडकों में जन्म लेना पड़ता है। तरह-तरह के शरीर, रूप, इंद्रियां, अंग-प्रत्यंग आदि भी इसी के कारण प्राप्त होते हैं।
इस क्रम में सातवां कर्म गोत्र कर्म है। यह आत्मा के अगुरुलघुत्व गुण को रोकता है। इसके उदय के कारण ही जीव ऊंचे-नीचे बनते हैं, सम्मान की दृष्टि से देखे जानेवाले और तुच्छ दृष्टि से देखे जानेवाले होते हैं।
___अंतिम कर्म है-अंतराय। यह आत्मा की अनंत शक्ति का प्रतिघात करनेवाला है। इस कर्म के उदय के कारण इच्छित वस्तु की प्राप्ति नहीं होती।
इन आठ कर्मों में ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, मोहनीय और अंतराय-इन चारों कर्मों को घाती या घात्य कर्म कहा जाता है, क्योंकि ये चारों आत्मा के मूल गुणों की घात करते हैं। चूंकि इन्हें नष्ट करने के लिए सघन प्रयत्न करना पड़ता है, इस अपेक्षा से इन्हें घनघात्य भी कहा जाता है। शेष चार कर्म आत्मा के मूल गुणों की घात नहीं करते, इसलिए वे अघाती या घात्य कहलाते हैं। ये शुभ और अशुभ दोनों प्रकार के होते हैं, जबकि घाती कर्म एकांत अशुभ होते हैं। इनमें मोहनीय कर्म बारहवें गुणस्थान में संपूर्ण नष्ट हो जाता है। ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय और अंतराय-इन तीन कर्मों का क्षय तेरहवें गुणस्थान में होता है। अघाती चारों कर्म-वेदनीय, आयुष्य, नाम और गोत्र-केवलज्ञानी के भी रहते हैं, चौदहवें गुणस्थान तक बने रहते हैं। दूसरे शब्दों में • १५४
- ज्योति जले : मुक्ति मिले
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