________________
६४ : जैन-दर्शन में कर्म
जैन-दर्शन एक आस्तिक दर्शन है। वह आत्मा का त्रैकालिक अस्तित्व स्वीकार करता है। आत्मा के संसार में पुनः पुनः जन्म-मरण या परिभ्रमण का कारण कर्म-बंधन है। जब तक आत्मा कर्मों से पूर्णरूपेण नहीं छूट जाती, तब तक उसे किसी-न-किसी रूप में जन्म-मरण करते रहना ही पड़ता है। कर्म-सिद्धांत की आगमों एवं उत्तरवर्ती ग्रंथों में विस्तृत चर्चा उपलब्ध है। तात्त्विक दृष्टि से कर्म पुद्गल हैं। सांसारिक प्राणी की मन, वचन और काया की स्थूल-सूक्ष्म प्रवृत्ति से आकर्षित होकर कर्म-पुद्गल आत्मा पर आकर जम जाते हैं, उसके साथ लोलीभूत हो जाते हैं और उसे विभिन्न रूपों में प्रभावित करते हैं।
___ कर्मों के आठ प्रकार माने गए हैं-१. ज्ञानावरणीय कर्म २. दर्शना-वरणीय कर्म ३. वेदनीय कर्म ४. मोहनीय कर्म ५. आयुष्य कर्म ६. नाम कर्म ७. गोत्र कर्म ८. अंतराय कर्म।
ये आठ कर्म आत्मा पर आठ रूपों में अपना प्रभाव प्रकट करते हैं।
जीव का सबसे महत्त्वपूर्ण गुण और लक्षण ज्ञान है। किसी अजीव पदार्थ में ज्ञान का सूक्ष्मांश से सूक्ष्मांश भी नहीं हो सकता। दूसरे शब्दों में ज्ञान जीव और अजीव की स्पष्ट भेद-रेखा है, पर सांसारिक प्राणियों (बारहवें गुणस्थान तक) के ज्ञान पर परदा होता है। इसका कारण ज्ञानावरणीय कर्म है। दूसरा कर्म है-दर्शनावरणीय। यह आत्मा के दर्शन गुण को रोकता है। तीसरा वेदनीय कर्म प्राणी के सुख-दुःख की संवेदना का हेतु है। चौथा मोहनीय कर्म है। यह जीव को व्यामोहित करता है। उसके दृष्टिकोण/श्रद्धा और आचरण को विकृत बनाता है। आत्मा के पाप-बंधन का हेतु एकमात्र यही कर्म है। आठों कर्मों में एक अपेक्षा से यह सर्वाधिक प्रभावशाली है। इसलिए इसे कर्मों का राजा कहा जाता है। इसके क्षीण हो जाने के पश्चात शेष सातों कर्मों की सत्ता हिल उठती जैन-दर्शन में कर्म
--१५३.
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org