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आदि उसके दस स्थान हैं। १०. स्वाध्याय-वाचना, पृच्छना, परिवर्तना, अनुप्रेक्षा और धर्मकथा
द्वारा आत्मलीन होना। ११. ध्यान-आर्त ध्यान और रौद्र ध्यान से बचते हुए धर्म्यध्यान
___अथवा शुक्ल ध्यान में आत्मा को स्थित करना। १२. व्युत्सर्ग-शरीर की चंचलता, ममत्व तथा उपधि आदि छोड़ना।
इन्हें बारह प्रकार का भी कहा जाता है। हर व्यक्ति को चाहिए कि तप के इन बारह प्रकारों में से जो-जो प्रकार संभव हो सके, उन्हें वह यथाशक्य अवश्य अपनाए। इससे असंदिग्ध रूप में उसकी आत्मउज्ज्वलता बढ़ेगी, वह मोक्ष के निकट पहुंचेगा। विनय का मूल्य
तप के इन बारह प्रकारों में आठवां प्रकार है-विनय। विनय आध्यात्मिक या धार्मिक दृष्टि से तो अत्यंत महत्त्वपूर्ण है ही, लौकिक या व्यावहारिक दृष्टि से भी कम उपयोगी तत्त्व नहीं है, पर आज इस तत्त्व का बहुत बड़ा अभाव नजर आ रहा है। आध्यात्मिक और धार्मिक विनय की बात तो बहुत दूर की है, समाज में सामान्य लौकिक विनय भी क्षीण हो रहा है। इसका कारण यह है कि व्यक्ति में स्वयं को महान और ऊंचा मानने की मनोवृत्ति पैदा हो रही है।
आप यह बात गहराई से समझें कि विनय के बिना जीवन की श्रृंखला नहीं बन सकती, परिवार और समाज की व्यवस्था भी सुंदर नहीं रहती। मेरी दृष्टि में वही परिवार संपत्तिशाली है, जिसके सदस्य एक नेतृत्व के प्रति विनयशील हैं। यही बात किसी समाज की भी है। जिस समाज के लोग अपने नेता के प्रति विनयशील नहीं होते, उस समाज की उन्नति अवरुद्ध-सी हो जाती है। विनय के अभाव के कारण आज सामाजिक एवं राजनीतिक क्षेत्रों में नेता बनने की होड़-सी लगी हुई है। यह अच्छी स्थिति नहीं है। इस स्थिति में अधिकार की भावना प्रबल बन जाती है और कर्तव्य विस्मृत हो जाता है।
___ अपेक्षा है, लोग धार्मिक एवं लौकिक दोनों प्रकार के विनय का पूरा-पूरा मूल्यांकन करें। कलकत्ता, २४ अप्रैल १९५९
धार्मिक और लौकिक विनय का महत्त्व -
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