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६२ : धार्मिक और लौकिक विनय का महत्त्व
निर्जरा के बारह प्रकार
साधक का चरम लक्ष्य होता है-मोक्ष की प्राप्ति। उसका साधना-पथ है-धर्मार्जित व्यवहार। धर्मार्जित व्यवहार साधक को निंदा और गर्दा से बचाता हुआ लक्ष्य के निकट लाता है, वहां तक पहुंचाता है। प्रश्न होगा कि धर्मार्जित व्यवहार क्या है। जैन-दर्शन में धर्मार्जित व्यवहार को निर्जरा कहा गया है। उसके बारह प्रकार हैं१. अनशन-उपवास आदि तपस्या करना, जीवनपर्यंत भोजन-पानी
आदि का त्याग करना। २. ऊनोदरी-पेट को कुछ भूखा रखना, कषाय और उपकरण न्यून
करना। ३. भिक्षाचरी-अभिग्रहपूर्वक भिक्षा का संकोच करना। ४. रस-परित्याग-दूध, दही, घी आदि छोड़ना, प्रणीत पान-भोजन
का वर्जन करना। ५. कायक्लेश-वीरासन आदि कठिन आसनों में शरीर को स्थित
करना, उसे साधना। ६. प्रतिसंलीनता-इंद्रिय-विषयों में राग-द्वेष नहीं करना, अनुदीर्ण
कषाय का निरोध तथा उदीर्ण को विफल बनाना, अकुशल मन आदि का निरोध तथा कुशल मन
आदि की प्रवृत्ति करना। ७. प्रायश्चित्त-दोषों की ओलचना करना, प्रतिक्रमण करना। ८. विनय-देव, गुरु और धर्म का विनय-उनके प्रति श्रद्धा का भाव
रखना और समुचित सत्कार-सम्मान करना। ९. वैयावृत्य-दूसरों का सहयोग करने की भावना से सेवा-कार्य में
व्यापृत होना। आचार्य, उपाध्याय, तपस्वी, शैक्ष
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--- ज्योति जले : मुक्ति मिले
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