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है और ये चारों भावनाएं पथ्य। दवा तभी लाभकारी होती है, जब पथ्य ठीक हो।
एक समय था, जब विरोध देखकर मेरे मन में दुःख होता था, किंतु आज स्थिति यह है कि किसी प्रकार के विरोध में क्षोभ नहीं होता। इसे मैं मैत्री भावना का विकास मानता हूं। मैं चाहता हूं कि सभी साधुसाध्वियों में, बल्कि श्रावक-श्राविकाओं में भी इस भावना का विकास हो। वे सलक्ष्य इसका अभ्यास और प्रयास करें। दूसरे के गुण देखकर प्रसन्न होना प्रमोद भावना है। सभी अपना-अपना आत्म-निरीक्षण करें। यदि दूसरे के गुण देखकर प्रसन्न होने की स्थिति बन गई है, तब तो बहुत शुभ है, किंतु ऐसा यदि नहीं है तो प्रमोद या मुदिता भावना का विकास करें। इसी प्रकार कारुण्य भावना और माध्यस्थ भावना की दिशा में भी हमारी गति होनी चाहिए, इनका विकास होना चाहिए। विकास का यह क्रम आगे से आगे बढ़ता रहे तो साधना में तेजस्विता प्रकट होने लगेगी।
कलकत्ता
२२ अप्रैल १९५९
साधना की तेजस्विता
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