________________
वर्तमान में महाव्रतों की साधना की भूमिका
यह बहुत स्पष्ट है कि अणुव्रतों और महाव्रतों में बहुत अंतर है। महाव्रत अणुव्रत नहीं हैं, किंतु साथ ही यह भी स्पष्ट हो जाना चाहिए कि वर्तमान में महाव्रतों की साधना छढे-सातवें गुणस्थानों की भूमिका की साधना है। दूसरे शब्दों में सामायिक चारित्र एवं छेदोपस्थापनीय चारित्र की साधना की भूमिका है। उसका मूल्यांकन इसी भूमिका के आधार पर किया जाना चाहिए, यथाख्यात चारित्र की साधना के आधार पर नहीं। यह ग्यारहवें गुणस्थान से चौदहवें गुणस्थान तक की साधना की भूमिका है। छठे-सातवें गुणस्थानों के साधक सकषायी होते हैं। यह तो बहुत स्पष्ट ही है कि वीतराग साधकों की तुलना में सकषायी साधकों की साधना हलकी होती है। इसलिए उनकी साधना को वीतराग साधकों की साधना से तोलना भूल है। साधना अंतरंग हो
साधु-साध्वियों को एक बात पर विशेष रूप से ध्यान देना चाहिए। महाव्रत केवल बाह्य ढांचा न रहे। साधना अंतरंग होनी चाहिए। चींटी को भी नहीं सताते, यह ठीक है, पर अंतर में यदि ईर्ष्या की भावना सुलगती है, असहिष्णुता का भाव उभरता है तो समझना चाहिए कि अहिंसा की भावना का विकास अभी अधूरा है। दूसरे को गिराने की भावना करना, अहित चिंतन करना हिंसा है। छिद्रान्वेषण भी हिंसा है। महाव्रतों की बाह्य साधना पर ध्यान और अंतरंग साधना की उपेक्षा की वृत्ति घुण के समान है। घुण धान्य का सत्त्व खाता है और उसका छिलका सुरक्षित रहता है। अंतर में घुण लगने से बाह्य साधना मात्र उपचार रह जाएगी, निस्सार बन जाएगी। साधक सदा यह देखता रहे कि कहीं मेरी साधना उपचार और निस्सार तो नहीं बन रही है। हालांकि छद्मस्थ साधक से भूल होना कोई अस्वाभाविक बात नहीं है, पर जो साधक अपने अंतर में जागरूक होता है, उससे भूल होने की संभावना बहुत कम हो जाती है। एक अपेक्षा से जागरूकता ही साधना है। जरूरी है भावना-चतुष्क का विकास
अहिंसा की पुष्टि के लिए मैत्री, प्रमोद, कारुण्य और माध्यस्थ-इन चार भावनाओं का अभ्यास और विकास जरूरी है। दूसरे शब्दों में इनका विकास अहिंसा का विकास है। रूपक की भाषा में कहूं तो अहिंसा औषध
.१४६
- ज्योति जले : मुक्ति मिले
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org