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________________ ६१ : साधना की तेजस्विता साधना : उद्देश्य और स्वरूप __ साधु-जीवन साधना का जीवन है। दूसरे शब्दों में साधना ही साधुता है। साधना नहीं तो कैसी साधुता? हम साधु-साध्वियों को इस बात की गौरवानुभूति होनी चाहिए कि हमने साधना का पथ स्वीकार किया है। इच्चेयाइं पंच महव्वयाइं राईभोयणवेरमणछट्ठाई-अहिंसा, सत्य आदि पांच महाव्रतों और रात्रिभोजनविरमणव्रत की साधना का संकल्प व्यक्त किया है। प्रश्न पैदा होता है कि साधना का यह कठिन पथ हमने क्यों स्वीकार किया है; क्या कोई भौतिक-प्राप्ति का लक्ष्य है। कोई भौतिक-प्राप्ति हमारी साधना का लक्ष्य नहीं है। हमारी साधना एकमात्र अत्तहियट्ठयाए-आत्महित के लिए है। फिर हमने स्वेच्छा से यह पथ स्वीकार किया है-यह भी बहुत महत्त्व की बात है, क्योंकि स्वेच्छा से स्वीकृत कोई भी बात बंधन नहीं होती, जबकि थोपी हुई बात बंधन बन जाती है। स्वेच्छा से स्वीकृत बात और थोपी गई बात में दिन-रात का-सा अंतर होता है। जहां स्वेच्छा से स्वीकृत बात पर दृढ़ता से डटे रहने की भावना रहती है, वहीं थोपी गई बात से जल्दी-से-जल्दी छूटने का प्रयत्न होता है। यही तो कारण है कि स्वेच्छा से स्वीकृत व्रत/नियम/संकल्प व्यक्ति कठिनाई झेलकर भी अच्छे ढंग से निभाना चाहता है। उन्हें तोड़ना तो बहुत दूर की बात है, वह ऐसा सोच भी नहीं सकता। कदाचित असावधानीवश कोई नियम/व्रत/संकल्प टूट जाता है तो वह अत्यंत दुखी होता है। उसका मन अनुताप से भर जाता है। इसके विपरीत थोपे गया बंधन तोड़कर वह प्रसन्न होता है, राहत की अनुभूति करता है। हमने महाव्रतों की यह साधना, जैसाकि मैंने अभी कहा, स्वेच्छा से स्वीकृत की है। इसलिए इस साधना में सहज आनंद की अनुभूति होती है, गौरव की अनुभूति होती है। हमारे लिए यह और भी अधिक आनंद और गौरव की बात हो सकती है कि हम स्वीकृत पांच महाव्रतों एवं रात्रिभोजनविरमणव्रत का सतत निरतिचार पालन करें। साधना की तेजस्विता Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003113
Book TitleJyoti Jale Mukti Mile
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2005
Total Pages404
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size13 MB
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