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६० : वर्तमान के परिप्रेक्ष्य में साहित्यकारों का दायित्व
साहित्यकार-वर्ग समाज का एक विशिष्ट वर्ग होता है। क्यों ? यह इसलिए कि साहित्यकारों में एक विशिष्ट शक्ति होती है, असाधारण क्षमता होती है। उस शक्ति और क्षमता के द्वारा वे लाखों-लाखों, करोड़ोंकरोड़ों निष्प्राण लोगों में भी प्राण फूंकने में सक्षम होते हैं, किंतु मैं अनुभव कर रहा हूं कि आज समाज में उनका जैसा सम्मान और प्रतिष्ठा होनी चाहिए, वैसी नहीं है। अपेक्षित है, समाज उनका गुणात्मक उचित मूल्यांकन करे। इसके समानांतर ही साहित्यकारों से भी अपेक्षा है कि वे साहित्य-साधना में आत्म-गौरव की अनुभूति बराबर करते रहें, भले समाज उनका उचित मूल्यांकन करता है अथवा नहीं भी करता है। साथ ही उनके द्वारा निर्मित साहित्य में समाज की जड़ता तोड़कर उसमें नवचेतना सृजन करने की गुणात्मकता होनी चाहिए। आप देखें, प्राचीन काव्य पढ़ते हैं तो हमें आज भी एक शक्ति का अनुभव होता है। इसकी कारण-मीमांसा में जाएं तो हमें साफ तौर पर यह ज्ञात होगा कि उनके सृजन के पीछे जन-कल्याण और आनंद का सुनिश्चित व सुस्पष्ट उद्देश्य काव्यकारों के सामने था। आज समाज में घोर अनैतिकता का वातावरण है, जन-जन में भ्रष्टाचार व्याप्त है। समाज के सभी वर्ग कुछ कमो-बेश बुराइयों की गिरफ्त में हैं। कोई भी वर्ग ऐसा नहीं है, जो बुराइयों से सर्वथा अछूता हो। ऐसी स्थिति में साहित्यकारों पर एक विशेष दायित्व आता है। वे समाज, राष्ट्र और जन-जन में नैतिकता, सदाचार और सत्य की पुनः प्रतिष्ठा के पवित्र उद्देश्य से विशेष साहित्य की रचना करें। इस कार्य में वे अपनी असाधारण प्रतिभा का भरपूर उपयोग करते हुए समाज और राष्ट्र के सामने एक दिव्य प्रकशपुंज बनकर प्रकट हों, ताकि दुर्नीति, असदाचार और असत्य का तिमिर दूर हो जाए। मैं मानता हूं, यह समाज, राष्ट्र और मानवता की बहुत ही उल्लेखनीय सेवा होगी। आशा है, उपस्थित साहित्यकार बंधु मेरे आह्वान का सकारात्मक उत्तर देंगे। कलकत्ता, २१ अप्रैल १९५९ .१४४
- ज्योति जले : मुक्ति मिले
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