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में असमाधि का कारण बन जाता है। सार-संक्षेप यह कि सच्चा सुख पदार्थ-सापेक्ष नहीं, आत्म-सापेक्ष है। तभी तो सच्चा सुख भोगी नहीं, योगी प्राप्त करता है। वह विषय-वासनाओं में नही फंसता, पदार्थों के भोग-उपभोग में आसक्त नहीं बनता। वह तो स्वयं को आत्म-शुद्धि के उपक्रमों में जुटाए रखता है, अपने आत्म-स्वभाव में अवस्थित रहने का प्रयत्न करता है। यह बात मैं ही नहीं कह रहा हूं, आप स्वयं भी तो इस सचाई का अनुभव करते होंगे। फिल्म-निर्माताओं से अपेक्षा
पदार्थों में सुख खोजने की भूल के कारण ही आज अर्थ को अनावश्यक/अतिरिक्त मूल्य मिल रहा है। ऐसा प्रतिभासित होता है कि अर्थ लोगों के जीवन का चरम लक्ष्य बन गया है। यह किसी एक वर्गविशेष के लोगों की स्थिति नहीं, अपितु सभी वर्गों के लोगों की मनःस्थिति का चित्र है। फिल्म उद्योग से जुड़े लोग मेरे सामने उपस्थित हैं। यह क्षेत्र भी तो आज अर्थ के प्रभाव से कहां मुक्त है? अधिकतर फिल्म-निर्माताओं का यही लक्ष्य रहता है कि उन्हें अधिक-से-अधिक आर्थिक लाभ हो। इस स्थिति में लोकरुचि के परिमार्जन एवं परिष्कार की बात तो वे सोच ही कैसे सकते हैं! यही कारण है, आज ज्यादातर फिल्में ऐसी होती हैं, जो जन-मानस को सुसंस्कारों एवं सात्त्विकता की
ओर नहीं ले जातीं। मैं चाहता हूं कि फिल्म-उद्योग से जुड़े चिंतनशील लोग इस संदर्भ में गहराई से चिंतन कर उसे इस प्रवृत्ति से मुक्त करने की दिशा में कोई सार्थक प्रयास करें। अणुव्रत-आंदोलन इस क्षेत्र में शुद्धि के लिए क्या कर सकता है, इस बिंदु पर इस आंदोलन से जुड़े कार्यकर्ताओं को भी विचार करना अपेक्षित है।
सुराना निवास सदर्न एवेन्यू, कलकत्ता १९ अप्रैल १९५९
सच्चा सुख क्या है -
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