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५९ : सच्चा सुख क्या है
धर्म : नदी का बहता स्रोत
धर्म नदी का बहता स्रोत है। संप्रदाय उसमें बने हुए विविध बांध हैं। नदी के बहते स्रोत में हिंदू भी पानी पीते हैं, मुसलमान भी पीते हैं
और दूसरे-दूसरे लोग भी पीते हैं। ऐसा करते हुए किसी के मन में कोई ग्लानि और घृणा पैदा नहीं होती, अंतर नहीं आता। ठीक यही बात धर्म के लिए भी है। वह किसी व्यक्ति, जाति, वर्ण और संप्रदायविशेष से बंधा हुआ नहीं है, वह तो प्राणिमात्र के लिए है। उसका द्वार सबके लिए समान रूप से खुला है। अपना जीवन पवित्र बनाने के लिए हर व्यक्ति को, हर प्राणी को उसका उपयोग करने का पूरा-पूरा अधिकार है। धर्म का यह सार्वजनिक य सार्वभौम रूप ही उसका शाश्वत एवं मौलिक स्वरूप है। उसका यह स्वरूप ही जीवन की पवित्रता का साधन बनता है। सुख के दो प्रकार
जब पवित्रता सधती है, तब सुख का स्रोत स्वतः फूट पड़ता है। सुख आत्मा का मूल स्वभाव है। इसी लिए तो 'सत्' और 'चित्' के साथ-साथ आनंद भी आत्मा का विशेषण है। शब्दांतर से हम ऐसा भी कह सकते हैं कि आत्मा की अपने मूल स्वरूप में संस्थिति ही सच्चा सुख है। अहिंसा, सत्य, संयम आदि तत्त्व इसी से निकलते हैं। चूंकि बहुसंख्य लोगों को इस सच्चे सुख की पहचान नहीं है, इसलिए वे खाने-पीने, पहनने-ओढ़ने आदि के काम आनेवाले पदार्थों में सुख खोजने की नासमझी करते हैं, वैषयिक प्रवृत्तियों में सुख मानने की भूल करते हैं, पर वहां सुख कहां? मात्र सुखाभास है। कारण? कारण तो बहुत स्पष्ट ही है। कालविशेष या स्थितिविशेष में जो पदार्थ सुख का हेतु लगता है, वही दूसरे समय में दुःख का हेतु बन जाता है, अन्य स्थिति • १४२ -
- ज्योति जले : मुक्ति मिले
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