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प्रतीत नहीं होता ।
मैत्री का उद्देश्य
अणुव्रत आंदोलन मैत्री की चर्चा अध्यात्म के धरातल पर कर रहा है। अंतरराष्ट्रीय, राष्ट्रीय और सामाजिक स्तरों पर मैत्री की चर्चा चलाना बहुत बड़ी बात है। उसके लिए विपुल और बड़े साधनों की अपेक्षा है। हमारा अणुव्रत आंदोलन तो बहुत छोटी-छोटी बातों का है। हम तो व्यक्तिव्यक्ति को मैत्री की बात समझाना चाहते हैं । आणविक अस्त्रों की विभीषिका दिखाकर हम मैत्री की बात नहीं कहते। हमारी भाषा में मैत्री का उद्देश्य है-अपनी शांति, विकास और संतुलन। वैसे गहराई से देखा जाए तो राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय शांति का मूल भी मैत्री ही है। राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय दोनों क्षेत्रों में अशांति का वातावरण तभी बनता है, जब मैत्री नष्ट हो जाती है। यद्यपि व्यक्ति-व्यक्ति, समाज-समाज, प्रांतप्रांत, राष्ट्र- राष्ट्र में मतभेद होना कोई बड़ी बात नहीं है, बल्कि कहना चाहिए कि बहुत सामान्य बात है, बहुत स्वाभाविक स्थिति है, पर मैत्री के अभाव में वह मतभेद मनभेद का रूप ले लेता है। फिर एक-दूसरे की आलोचना की प्रवृत्ति चलती है। हालांकि आलोचना एकांततः बुरी बात नहीं है। यदि उसके पीछे सामनेवाले पक्ष के सुधार की पवित्र भावना हो तो उसे गलत कैसे माना जा सकता है ? वह तो अच्छी ही है, उपादेय ही है, लेकिन जहां आलोचना मनभेद के कारण होती है, वहां सुधार की दृष्टि नहीं रहती। वहां तो दृष्टि यह रहती है कि लोगों की नजरों से वह गिर जाए। इसी प्रकार और भी अनेक तरह की अवांछित प्रवृत्तियां सभी स्तरों पर मनभेद के कारण पैदा होती हैं।
मैत्री का सीमा क्षेत्र
इस संदर्भ में एक बात स्पष्ट कर देना आवश्यक समझता हूं। मैत्री का यह तात्पर्य नहीं कि अन्याय का विरोध या प्रतिकार न किया जाए । उसका बहुत स्पष्ट अभिप्रेत यह है कि उचित का समर्थन तथा अनुचित का प्रतिरोध किया जाए। चूंकि प्रतिरोध की शक्ति व्रत से उत्पन्न होती है, अतः मैं चाहता हूं कि व्रत का विकास हो, संयम का विकास हो, अनाक्रमण और शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व की भित्ति पर मैत्री का विकास हो ।
कलकत्ता, १२ अप्रैल १९५९
मैत्री : आधार और स्वरूप
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