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५७ : मैत्री-दिवस : अभिप्रेत और स्वरूप
आज सारे संसार में विरोध और वैमनस्य का वातावरण बना हुआ है। मैत्री-दिवस उसे बदलने के लिए प्रस्तुत है। मैत्री स्वार्थ और आसक्ति-वर्जित सात्त्विक भावना है, जो कि अंतरतम से जुड़ी हुई है। मैत्री
और प्रेम में अंतर है। प्रेम में इकतरफा ऐसा आकर्षण व झुकाव होता है, जो समता नहीं बने रहने देता। मैत्री का आदर्श है-मित्र भाव और समता भाव। यह मित्र भाव और समता भाव केवल मित्रों एवं प्रेमियों के प्रति नहीं, अपितु शत्रुओं के प्रति भी बरता जाए। वस्तुतः मैत्री एक विशद और व्यापक तत्त्व है। इसे स्वयं में पनपने देने के लिए यह आवश्यक है कि व्यक्ति दूसरों से प्रेम पाकर फूले नहीं, विरोध पाकर सूखे नहीं। निश्चय में तो मित्र और शत्रु कोई दूसरा होता ही नहीं, मित्र
और शत्रु अपनी आत्मा ही है। भगवान महावीर के शब्दों में-अप्पा मित्तममित्तं च दुपट्ठिय सुपट्ठिओ। अर्थात अपनी सत्प्रवृत्त आत्मा ही मित्र है और वही शत्रु है, जब वह दुष्प्रवृत्त होती है। यही बात प्रकारांतर से गीता में भी कही गई है-'कंठोच्छेद करनेवाला शत्रु उतना नुकसान नहीं करता, जितना अपनी दुष्प्रवृत्त आत्मा करती है।' ___ मैत्री की मूल भित्ति सहिष्णुता है। जब तक औरों के वे विचार, जो अपने विचारों से मेल नहीं खाते, सहन नहीं होंगे, तब तक मित्रता कैसे पनपेगी? कहां पनपेगी? इसलिए मैत्री के विकास के लिए सहिष्णुता की चेतना जगाने की जरूरत है। सहिष्णुता के साथ ऋजुता और मृदुता की भी अपेक्षा है, क्योंकि जब तक इन दोनों गुणों का विकास नहीं होगा, तब तक दूसरों की अप्रिय/कटु बात सहन करने की आंतरिक क्षमता पैदा नहीं होगी।
मैत्री के विकास के लिए अभय की साधना भी जरूरी है, क्योंकि मैत्री और अभय का अविनाभावी संबंध है। व्यक्ति अपनी ओर से दूसरों के लिए भय उत्पन्न न करे, उनका अनिष्ट न करे और साथ ही स्वयं
- ज्योति जले : मुक्ति मिले
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