________________
५६ : छात्राएं समाज की भावी निर्मात्रियां हैं
धर्म का प्रथम सोपान
धर्म के वे ऊंचे-ऊंचे आदर्श हमारे किस काम के, जो केवल धर्मग्रंथों में रहें, जीवन के आचार और व्यवहार में न आएं ? वस्तुतः मानव के लिए वे तभी उपयोगी बनते हैं, जब वे उसके दैनंदिन व्यवहार के साथ जुड़ जाएं, व्यक्ति की हर छोटी-बड़ी प्रवृत्ति में उनकी पुट हो। यदि ऐसा नहीं होता तो व्यक्ति के लिए उनकी कोई उपयोगिता सिद्ध नहीं होती। आप लोग सूत्र रूप में यह बात समझें कि सदाचरण धर्म का प्रथम सोपान है। धर्म का सच्चा आराधक अथवा सच्चा धार्मिक वही है, जो अपना आचरण और व्यवहार परिमार्जित करता है, शुद्ध बनाता है, जिसके जीवन और जीवन-व्यवहार में सत्य, शील, संतोष, अपरिग्रह, अस्तेय, अहिंसा, मैत्री आदि धर्म के मौलिक सिद्धांत प्रतिबिंबित होते हैं, मूर्त होते हैं। अपेक्षित है दृष्टिकोण में बदलाव
इस परिप्रेक्ष्य में यदि सूक्ष्मता से देखा जाए तो निष्कर्ष रूप में यह तथ्य सामने आएगा कि आज सच्चे धार्मिकों का अभाव-सा हो रहा है। मात्र भगवान का नाम लेकर अथवा मंदिर में उनकी पूजा कर अपनेआपको धार्मिक माननेवालों की तो कोई कमी नहीं, पर शुद्धाचार और सम्यक व्यवहार से धार्मिक बननेवाले बहुत कम लोग हैं। इसका कारण यह है कि आज सदाचारी या चरित्रशील व्यक्ति की वैसी प्रतिष्ठा नहीं है, जैसी कि एक धनसंपन्न व्यक्ति की है। यह दृष्टिकोण का विपर्यास है, गलत मूल्यांकन है। प्रतिष्ठा सच्चरित्र, सदाचार, सात्त्विकता, सादगी
और सद्विचार की होनी चाहिए, न कि भौतिक वैभव और संपदा की। इस गलत प्रतिष्ठा और मूल्यांकन ने समाज को रुग्ण बनाया है, उसका बहुत बड़ा अहित किया है। अनेक प्रकार की दुष्प्रवृत्तियां इसके कारण पनपी हैं। यदि समाज को स्वस्थ बनाना है तो व्यक्ति-व्यक्ति के दृष्टिकोण • १३४ -
- ज्योति जले : मुक्ति मिले
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org