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नहीं होता है, धर्माराधना में प्रमाद करता है, उसे बुढ़ापे में या कल कर लेने की बात कह आगे से आगे टालने की चेष्टा करता है, यह कहां कि समझदारी है? जब जीवन में एक क्षण का किसी को कोई भरोसा नहीं है, मौत किसी भी क्षण उपस्थित हो सकती है, फिर धर्माराधना बाद में या बुढ़ापे में कर लेने की बात कहने का क्या औचित्य है? 'कल' कभी आता भी है क्या ? बुढ़ापा आएगा, इसकी भी क्या गारंटी है ? भगवान महावीर ने कहा है
जस्सत्थि मच्चुणा सक्खं, जत्थ वऽित्थ पलाइणं। जो जाणेइ न मरिस्सामि, सो हु कंखे सुए सया॥ करणीय कार्य कल कर लूंगा-ऐसा वही व्यक्ति सोच सकता है, जिसका मौत के साथ मैत्री-समझौता हो अथवा जो अपने को इतना सबल/सक्षम मानता हो कि मौत उपस्थित होने पर मैं पलायन कर अपना बचाव कर लूंगा अथवा जिसे यह अटूट विश्वास हो कि मैं अमर हूं, कभी मरूंगा नहीं।
हम जानते हैं कि ऐसा कोई व्यक्ति होता नहीं। सभी को एक दिन मौत का वरण करना पड़ता है। और तो क्या, तीर्थंकर-जैसे सर्वाधिक सक्षम पुरुष भी अपना आयुष्य एक क्षण भी नहीं बढ़ा सकते। फिर सामान्य प्राणियों की तो बात ही क्या! ऐसी स्थिति में समझदारी का तकाजा यही है कि व्यक्ति धर्माराधना में प्रमाद न करे। उसे कल के लिए न छोड़े। अपना करणीय आज ही करे। अपने जीवन का हर व्यवहार, हर प्रवृत्ति धर्म के साथ जोड़े। अणुव्रत-आंदोलन धर्म को व्यक्ति-व्यक्ति के जीवन-व्यवहार में व्याप्त करने की ही योजना है। आप अणुव्रतआंदोलन को समझें। उसकी संयममूलक आचार-संहिता संकल्प के स्तर पर स्वीकार करें, अपना जीवन धर्म से भावित कर सार्थक बनाएं। यही मुझ-जैसे अकिंचन संत का सच्चा स्वागत होगा।
सदर्न एवेन्यू, कलकत्ता ३ अप्रैल १९५९
संतों के स्वागत की स्वस्थ विधा
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