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________________ ५५ : संतों के स्वागत की स्वस्थ विधा सच्चा उपासक कौन आप लोगों ने मेरा स्वागत किया। मैं ऐसा तो नहीं कहता कि आपका स्वागत मात्र औपचारिक था, निश्चय ही उसके पीछे आपकी श्रद्धा और भक्ति बोल रही थी, तथापि इतना सुनिश्चित है कि हम अकिंचन साधु-संतों का स्वागत शब्दों और अभिनंदन-पत्रों से नहीं हो सकता। भारतीय संस्कृति में त्यागी/अकिंचन साधु-संतों के स्वागतअभिनंदन की एक विशिष्ट परंपरा रही है, अलग विधा रही है। वह विधा है कि उनके द्वारा बताए गए मार्ग पर अग्रसर होने का संकल्प करना। भगवान का चरणामृत लेनेवाले आज बहुत मिल सकते हैं, उनकी प्रतिमा पर फूल चढ़ानेवालों की भी कोई कमी नहीं है, पर प्रश्न तो यह है कि भगवान के दिखाए पथ पर चलनेवाले कितने हैं। जब तक यह तैयारी नहीं है, तब तक ऊपर की बातों से उनकी सच्ची सेवा-पूजा और भक्ति नहीं हो सकती। हम अपने आराध्य द्वारा बताए गए मार्ग पर चलने के लिए संकल्पित हों, उस दिशा में ईमानदारीपूर्वक प्रयाण करें, तभी हम उनके सच्चे आराधक, उपासक और भक्त बनेंगे। करणीय में कल की बात क्यों भगवान ने, हमारे ऋषि-मुनियों ने हमें जो मार्ग दिखाया, वह धर्म के नाम से जाना-पहचाना जाता है। धर्म क्या है? एक अपेक्षा से सत्कर्म ही धर्म है। व्यक्ति स्वयं को सदा सत्कर्म में संलग्न रखे, यही भगवान की सच्ची आराधना है। व्यक्ति जब तक अज्ञानावस्था में रहता है, उसकी विवेक-चेतना सुषुप्त रहती है, उसके अंतर में अपने हित-अहित का चिंतन नहीं जागता है, तब तक की बात तो अलग है, पर जिस क्षण उसे सम्यक बोध हो जाए, उसकी विवेक-चेतना झंकृत हो जाए, वह अपना हित-अहित समझने लगे, उसके बाद भी यदि वह सत्कर्म में प्रवृत्त - ज्योति जले : मुक्ति मिले .१३२ - Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003113
Book TitleJyoti Jale Mukti Mile
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2005
Total Pages404
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size13 MB
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