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________________ ५३ : विरोध भी उपयोगी है यह जीवन संयोग और वियोग का संगम है। व्यक्ति अनकूलता का कामी तो हो सकता है, पर उसे सदा अनुकूलता प्राप्त हो, यह संभव नहीं है। उसके मन के अनुकूल, चाह के अनुरूप पदार्थ, व्यक्ति और अवसर का संयोग सदैव मिलता रहे, ऐसा होता नहीं। आज अनुकूलता है तो कल प्रतिकूलता भी संभावित है। ऐसी स्थिति में पुरुषार्थी व्यक्ति को कठिन-से-कठिन परिस्थिति एवं भयंकर-से-भयंकर प्रतिकूलता में भी अपना धैर्य नहीं खोना चाहिए, पर आज ऐसा कम देखने में आता है। कोई पुत्र-वियोग से पीड़ित है, किसी को अर्जित धन के नष्ट हो जाने का विषाद है, किसी को आधि-व्याधि का कष्ट है। धर्म यह सिखाता है कि प्रतिकूल एवं अनुकूल दोनों ही परिस्थितयों में व्यक्ति को अपना संतुलन बनाए रखना चाहिए। ऐसे व्यक्ति, जो संपत्ति में फूले नहीं समाते और विपत्ति में जिनके दुःख का कोई पार नहीं रहता, अपने जीवन में क्या कर सकते हैं! महाभारत में कुंती का एक प्रसंग आता है। भगवान से वर की याचना करती हुई वह कहती है-'मुझे सदैव विपत्तियों का सामना करना पड़ता रहे।' क्यों ? इसलिए कि संपत्ति में तो व्यक्ति परमात्मा को, अपने-आपको भूल जाता है। उसे सत-असत का विवेक नहीं रहता। सत्पथ से विचलित होते उसे देर नहीं लगती। विपत्ति ही वह अवसर है, जब व्यक्ति आत्म-चिंतन एवं अंतर्गवषणा की ओर मुड़ता है। इसलिए एक अपेक्षा से विपत्ति वरदान है और संपत्ति अभिशाप है। जैन-दर्शन में विपत्ति की तरह ही संपत्ति को भी परीषह-कष्ट की श्रेणी में परिगणित किया गया है। संपत्ति को अनुकूल परीषह बताया गया है और विपत्ति को प्रतिकूल परीषह। देश के बड़े-बड़े विद्वानों एवं विचारकों से मेरा संपर्क हुआ है। राष्ट्र के करोड़ों लोगों की भी सद्भावनाएं मुझे मिली हैं, पर इसके • १२८ . - ज्योति जले : मुक्ति मिले Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003113
Book TitleJyoti Jale Mukti Mile
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2005
Total Pages404
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size13 MB
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