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५१ : आशातना से बचें
सामाजिक जीवन की मर्यादा
मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है। वह समाज में रहता है। समाज का एक अंग है। यदि वह अकेला होता तो संभवतः असत्य, शोषण, चोरी, बलात्कार आदि दोषों में नहीं फंसता। क्यों? यह इसलिए कि प्रायः संघर्ष, द्वैध या विकार एक से अधिक की स्थिति में ही पैदा होता है। सामाजिक प्राणी की अपनी कुछ मर्यादाएं होती हैं। उसके लिए इतना ही पर्याप्त नहीं कि वह अपने सुख-दुःख की बात सोचे, बल्कि उसके लिए यह भी आवश्यक है कि वह पराए सुख-दुःख के प्रति भी संवेदनशील रहे, जागरूक रहे। इस बात का सदैव सलक्ष्य ध्यान रखे कि उसकी किसी प्रवृत्ति से किसी का उत्पीड़न न हो, किसी को कष्ट न पहुंचे, किसी का मन न दुखे। उसके हर व्यवहार में विनय, नम्रता, मैत्री एवं सौजन्य की पुट रहे। यदि प्रत्येक व्यक्ति इस दृष्टि का अनुकरण करे तो कोई कारण नहीं कि सामाजिक जीवन में अशांति और असद्भावना हो। मूलतः तो यह व्यक्ति की अपनी साधना है, पर समाज से संबद्ध होने के कारण सामाजिक जीवन में शुद्धि लाने का भी सहज साधन बन जाती है। पारस्परिक व्यवहार की सात्त्विकता का आधार
___ आप देखें, संसार में गुरु-शिष्य, पिता-पुत्र, पति-पत्नी, भाई-भाई, भाई-बहिन, नेता-अनुयायी, स्वामी-सेवक आदि संबंध होते हैं। इस स्थिति में पारस्परिक व्यवहार सात्त्विक एवं पवित्र बनाए रखने के लिए यह नितांत अपेक्षित है एक व्यक्ति दूसरे व्यक्ति की आशातना न करे। शिष्य गुरु की आशातना न करे, पुत्र पिता की आशातना न करे, अनुगामी नेता की आशातना न करे.."पर इसका यह अर्थ नहीं कि आशातना केवल छोटों से होती है, बड़ों से नहीं होती। वह छोटों की • १२४ -
- ज्योति जले : मुक्ति मिले
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