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५० : अहिंसा प्राणिमात्र के लिए क्षेमंकरी है
धर्म और अहिंसा का दुरुपयोग क्यों
आज सर्वत्र राजनीति का प्रभाव परिलक्षित हो रहा है। और तो क्या, धर्म को भी लोग राजनीति के रंग से रंगना चाहते हैं। अहिंसाजैसे तत्त्व को भी राजनीति के मंच पर घसीट लाए हैं। भाषणों में अहिंसा के उच्च आदर्शों की बड़ी-बड़ी बातें और हृदय में हिंसा का हलाहल ! यह स्थिति अहिंसा को राजनीति के रंगमंच पर घसीटना नहीं है तो और क्या है ? क्या यह अहिंसा और धर्म की विडंबना नहीं है ? संसार में हिंसा की आग भड़कानेवाले अहिंसा का उपदेश दें, उसे अपनाने की बातें करें, समूचे संसार को कुचल देने का दुराशय रखनेवाले शांति का सम्मेलन बुलाएं, यह कैसी विसंगति है ! पर आज कुछ ऐसा ही हो रहा है। यह सर्वथा अनधिकृत चेष्टा है। वस्तुतः अहिंसा और शांति की चर्चा करने के अधिकारी वे ही हैं, जो अहिंसा और शांति को जीते हैं, जिनके जीवन में अहिंसा और शांति व्याप्त है।
अहिंसा की सही समझ
हिंसा और अहिंसा के संदर्भ में लोगों की समझ बहुत आधीअधूरी है। प्रायः लोग पीटना, हाथ-पैर तोड़ देना, अंग-भंग कर देना, मार देना आदि को हिंसा और इससे उपरत होने को अहिंसा समझते हैं, पर जैन तीर्थंकरों ने हिंसा-अहिंसा के बारे में बहुत व्यापक स्तर पर चिंतन किया है। उन्होंने कहा - 'किसी प्राणी को मत मारो, उसे अधीन मत बनाओ, उस पर हुकूमत मत करो, उसके अधिकारों का अपहरण मत करो..... यह अहिंसा का स्वरूप है, अहिंसा का घोष है। अहिंसा की साधना के लिए व्यक्ति शरीर वाणी और मन- तीनों ही स्तरों पर दुष्प्रवृत्ति से बचे, यह अपेक्षित है। कायिक हिंसा ही हिंसा नहीं है, वाणी का दुष्प्रयोग भी हिंसा है, मन का दुश्चिंतन भी हिंसा है। किसी की
ज्योति जले : मुक्ति मिले
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