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विवेकः पृथगात्मकता
पूछा जा सकता है कि विवेक किसे कहते हैं। तात्त्विक दृष्टि से पृथगात्मकता का नाम विवेक है। पृथगात्मकता यानी मिली हुई वस्तुएं पृथक-पृथक कर देना। जो जिस रूप में है, उसे उसी रूप में जानना। इस विवेक के सहारे व्यक्ति आत्मा और अनात्मा का भेद समझता है, समझने के बाद आत्मपक्ष पर बल देता है। गहराई से देखा जाए तो आत्मपक्ष मजबूत बनाना ही जीवन का सही लक्ष्य है। धर्म का मूल
धर्म का मूल विनय है, पर उसे मात्र औपचारिक झुकने या नमने तक ही सीमित नहीं करना चाहिए। उसका वास्तविक अर्थ है-आंतरिक नम्रता, ऋजुता, स्वच्छता और कोमलता। शास्त्रों में उसका विशाद विवेचन प्राप्त है। उसके सात भेद बताए गए हैं-ज्ञान-विनय, दर्शनविनय, चारित्र-विनय, मन-विनय, वचन-विनय, काय-विनय और उपचारविनय। एक शब्द में कहा जाए तो उसका अर्थ है-आचार यानी चरित्र । जीवन की मूल पूंजी
___ मैं मानता हूं, आचार जीवन की मूल पूंजी है। इस धन से संपन्न व्यक्ति वास्तव में संपन्न है। जिसके पास यह पूंजी नहीं है, वह धनी नहीं है, महादरिद्र है, भले वह कितना ही बड़ा अर्थपति क्यों न हो। यह कितनी गंभीर चिंतनीय बात है कि आज मानव जीवन की यह मूल पूंजी ठुकराकर एकमात्र पैसे के पीछे पागल-सा बन रहा है। उसके समक्ष अपना एक ही लक्ष्य है कि येन केन प्रकारेण अधिक-से-अधिक पैसा अर्जित और संगृहीत किया जाए। संयमः खलुः जीवनम्-संयम ही जीवन है के स्थान पर 'पैसा ही जीवन है' को उसने अपना आदर्श-सूत्र बना लिया है। इस अर्थप्रधान या अर्थकंद्रित चिंतन ने समाज में अनेक प्रकार की दुष्प्रवृत्तियां एवं भ्रष्टाचार पनपने की उर्वरा तैयार की है। एक अभिशाप
___ आज दहेज की प्रवृत्ति का जो विकृत रूप बना है, उसके मूल में यह अर्थप्रधान मनोवृत्ति ही है। एक समय था, जब भारत में दूध, घी
और विद्या–तीनों चीजें बेची नहीं जाती थीं, पर उसी भारत-भूमि पर आज ऐसा युग हम आंखों से देख रहे हैं, जिसमें लोग अपना रक्त बेचने में भी नहीं सकुचाते। फिर यह कोई गरीब और सामान्य लोगों की बात
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- ज्योति जले : मुक्ति मिले
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