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४९ : आचार जीवन की मूल पूंजी है
वह धर्म नहीं, जिससे अधर्म भयभीत न हो उठे। वह अहिंसा नहीं, जिससे हिंसा थर्रा न जाए। वह सत्य नहीं, जिससे असत्य कंपित न हो जाए। मैं समझता हूं, धर्म, अहिंसा और सत्य के सहज ओज से इनके विरोधी पक्षों में अकुलाहट-घबराहट उत्पन्न होनी ही चाहिए। तभी धर्म,
अहिंसा और सत्य की सच्ची सफलता है, तभी उनकी तेजस्विता प्रकट होती है। धर्म आत्मा का स्वभाव है
धर्म आत्मा का विषय है। वह बाहर से थोपी जानेवाली वस्तु नहीं है। जिस प्रकार अग्नि का स्वभाव उष्णता है, उसी प्रकार आत्मा का स्वभाव धर्म है। वह विवेक में समाश्रित है। अविवेक और धर्म का परस्पर कोई मेल नहीं, दूर का भी मेल नहीं। यह एक कटु सचाई है कि अविवेकियों के हाथों में पड़कर धर्म की बड़ी बदनामी हुई है। उसे अफीम तक कहा गया है। एक अपेक्षा से यह कथन गलत भी नहीं है। स्वार्थी और अविवेकी लोगों ने क्या-क्या अनुचित कृत्य और अधर्म नहीं किया ! आप जरा देखें, जो धर्म पारस्परिक सौहार्द और मैत्री का संदेशवाहक है, उसके नाम पर वैमनस्य उत्पन्न किया गया, बड़े-बड़े विवाद और संघर्ष खड़े किए गए, खून की नदियां बहाई गईं। आज भी हम देखते हैं कि धर्म और धर्म-प्रवर्तकों के नाम का खुलकर दुरुपयोग होता है। बीड़ी के व्यापारी अपनी बीड़ी के साथ महावीर और बुद्ध के नाम जोड़कर क्या उन महापुरुषों का भयंकर दुरुपयोग नहीं कर रहे हैं? कल क्या शराब पर भी लोग ऐसे महापुरुषों की छाप नहीं लगाएंगे? जिन दुकानों पर भ्रष्ट-से-भ्रष्ट कार्य होता है, उन पर भी गांधीजी की तस्वीर रहती है। मैं नहीं समझता कि इससे बड़ी आत्म-विडंबना और धोखा क्या होगा! ये सब अविवेक के उदाहरण हैं। आचार जीवन की मूल पूंजी है
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