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________________ अनैतिकता, रिश्वतखोरी, कालाबाजारी, मिलावट आदि की तरफ झुकता है, इनमें प्रवृत्त होता है। अनंत हैं इच्छाएं-आकांक्षाएं. असीमित इच्छाएं-आकांक्षाएं पालना अर्थ-संग्रह का तीसरा कारण है। आप निश्चित माने कि जीवन की अनिवार्य अपेक्षाओं की पूर्ति तो संभावित है, पर इच्छाओं-आकांक्षाओं की पूर्ति कभी संभावित नहीं है, क्योंकि इच्छाएं-आकांक्षाएं आकाश की तरह अनंत हैं। एक इच्छाआकांक्षा की पूर्ति होती है और उसके साथ ही दो नई इच्छाएं-आकांक्षाएं जनम जाती हैं। उन दो इच्छाओं-आकांक्षाओं की पूर्ति होती है कि अन्य चार इच्छाएं-आकांक्षाएं प्रकट हो जाती हैं; और यह सिलसिला आगेसे-आगे बढ़ता चला जाता है। व्यक्ति इनकी पूर्ति के लिए बेचैन रहने लगता है, और यह बेचैनी उसे अधिक-से-अधिक धन का अर्जन करने के लिए प्रेरित करती रहती है। ऐसी स्थिति में उसके सामने साधन-शुद्धि की बात गौण हो जाती है। वह भ्रष्टाचार, अनैतिकता, रिश्वतखोरी, शोषण आदि में प्रवृत्त होते कोई संकोच और परहेज नहीं करता। दूसरे शब्दों में वह अपनी धार्मिकता का आधार नष्ट कर देता है, एक सद्गृहस्थ और सन्नागरिक कहलाने का भी अधिकारी नहीं रहता। इसी लिए भगवान महावीर ने कहा कि सद्गृहस्थ या सन्नागरिक वही है, जिसकी इच्छाएं-कामनाएं सीमित हैं, परिग्रह अल्प है। इच्छा-आकांक्षा व परिग्रह के अल्पत्व से जीवन-वृत्ति में सहज धार्मिकता आती है। फिर व्यक्ति कोई भी भ्रष्ट आचरण नहीं कर सकता, अनैतिकता, बेईमानी और अप्रामाणिकता नहीं बरत सकता, रिश्वत नहीं ले सकता, शोषण नहीं कर सकता, व्यवहार में असत्य नहीं चला सकता। सच्ची धार्मिकता का आधार आप यह बात आत्मसात करें कि जीवन में जितना-जितना सदाचार है, सत्य का व्यवहार है, सच्चरित्रता है, प्रामाणिकता, नैतिकता और ईमानदारी है, वह सब धर्म है। इन्हीं के आधार पर व्यक्ति धार्मिक बनता है। यदि ये तत्त्व उसके जीवन-व्यवहार में नहीं हैं तो उसकी धार्मिकता का मूल आधार ही समाप्त हो जाता है। फिर भगवान का नाम लेने और पूजा-पाठ करने मात्र से वह सच्चा धार्मिक नहीं हो सकता। अणुव्रतआंदोलन व्यक्ति-व्यक्ति को सत्य, सदाचार, सच्चरित्र, नैतिकता, व्यापारी सत्यनिष्ठ एवं प्रमाणिक बनें - Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003113
Book TitleJyoti Jale Mukti Mile
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2005
Total Pages404
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size13 MB
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